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प्रथमः सर्गः
टिप्पणी-राजा का प्रकृति-प्रेम संकेतित । विद्याधर के अनुसार जाति और अनुप्रास अलंकार और मल्लिनाथ के अनुसार स्वभावोक्ति, प्रसून, फल और वन में एक गुण मंजुलता अथवा रमणीयता होने से चंद्रकलाकार के अनुसार तुल्ययोगिता॥७६॥ फलानि पुष्पाणि च पल्लवे करे वयोऽतिपातोद्गतबातवेपिते । स्थितैः समाधाय महर्षिवार्द्धकाद्वने तदातिथ्यमशिक्षिशाखिभिः ।। ७७ ।।
जीवातु-फलानीति । वयोऽतिपातेन पक्षिपातेन वाल्याद्यपगमेन चोद्गतेनो. त्थितेन वातेन वायुना वातदोषेण च वेपिते कम्पिते 'खगबाल्यादिनोर्वय' इत्यमरः । पल्लव एव कर इति व्यस्तरूपकं फलानि पुष्पाणि च समाधाय निघाय स्थितस्तिष्ठद्भिः वने शाखिभिर्वक्ष: वेदशाखाध्यायिभिश्च, 'शाखाभेदे द्रुमे शाखा वेदेऽपी'ति वैजयन्ती । तदातिथ्यं तस्य नलस्यातिथ्यम् अतिथ्यर्थं कर्म, 'अतिथेw' इति त्र्यप्रत्ययः । महीणां वार्द्धकाद् वृद्धसमूहात् तत्रत्यवृद्धमहर्षिसङ्घादित्यर्थः । शिवभागवतवत्समासः । 'वृद्धसंघे तु वार्द्धकमि'त्यमरः । 'वृद्धाच्चेति वक्तव्यमिति समूहार्थे प्रत्यः । अशिक्षि शिक्षितमभ्यस्तम्, अन्यथा कथमिदमाचरितमिति भावः । कर्मणि लुङ् उत्प्रेक्षेयं सा च व्यञ्जकाप्रयोगाद्गम्या पूर्वोक्तरूपकश्लेषाभ्यामुत्थापिता चेति सङ्करः ।। ७७ ॥
अन्वयः-वयोऽतिपातोद्गतवातवेपिते पल्लवे करे फलानि पुष्पाणि च समाधाय स्थितः शाखिभिः वने महर्षिवार्द्धकात् तदातिथ्यम् अशिक्षि ।
हिन्दी-वय अर्थात् पक्षियों के आकर बैठने से उत्पन्न वायु से हिलते पल्लव ( किसलय )-रूप हाथ में फल-फूलों को लेकर खड़े वृक्षों ने वन में वय अर्थात् तारुण्य के बीत जाने से ( बुढ़ापा आ जाने पर ) उत्पन्न वात दोष से कांपते पल्लव सदृश हाथ में फल-फूल लेकर खड़े विशिष्ट वेद-शाखाओं के अध्ययन से संबद्ध बूढ़े महर्षिगण से उस ( नल ) के आतिथ्य की शिक्षा ली।
टिप्पणी-मान्य अतिथि का स्वागत हुआ ही करता है, किसी आश्रम में पहुंचने पर जिस प्रकार वृद्ध महर्षि राजा का आतिथ्य करते, वैसे ही वन में फल-फलो से संपन्न पल्लव-करों द्वारा पुराने वृक्ष कर रहे हैं। कालिदास ने वन में गोचारण करते राजा दिलीप का बाललताओं द्वारा पुष्प-वर्षा से आतिथ्य