Book Title: Naishadhiya Charitam
Author(s): Harsh Mahakavi, Sanadhya Shastri
Publisher: Krishnadas Academy Varanasi

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Page 197
________________ द्वितीयः सर्गः जीवातु — दधत इति । अथ स खगो हंसः बहुशैवला भूरिशैवला क्ष्मा भूर्यस्य तद्बहुशैवलक्ष्म तस्य भावः तत्ता तां दधतो दधानात् सरसः पल्वलात् बहूनि शैवलक्ष्माणि शिवभक्तचिह्नानि यस्य स बहुशैवलक्ष्मा तस्य भावः तत्ता तां दधतो दधानस्य नलस्य रुद्राक्षाणि मधुव्रता इवेत्युपमितसमासः, घृता येन तं करं कोकनदभ्रमाद्रक्तोत्पलभ्रान्तेरिव पुनर्ययी, कोकनदन्तु रुद्राक्षसह - शमधुव्रतं खलु । अत्र बहुशैवलेत्यादौ शब्दश्लेषस्तदनुप्राणिता रुद्राक्षमधुव्रतमित्युपमा तत्सापेक्षा चेयं कोकनदभ्रमादिवेत्युत्प्रेक्षेति सङ्करः ।। ६ ।। ५ अन्वयः—सः खगः बहुशैवलक्ष्मतां दधतः ( वहतः ) सरसः नलस्य ( बहुशैव लक्ष्मतां दधतः ) धृतरुद्राक्षमधुव्रतं करं कोकनदभ्रमात् इव पुनः ययौ । हिन्दी -- वह ( हंस ) प्रचुर सिवार घास से ढकी धरती को धारण करते सरोवर से ( अनेक शिवभक्ति-सूचक अथवा शिव अर्थात् शुभ-सूचक चिह्नों से युक्त ) रुद्राक्ष रूप भ्रमरों को नियमतः धारण करते नल के हाथ में ( रुद्राक्षों के तुल्य मौरों से युक्त ) मानों लाल कमल के भ्रम से पुनः पहुँच गया। टिप्पणी- राजा शैव होने के कारण हाथ में रुद्राक्ष धारण किये रहता था, वर्ण- साम्य के आधार पर उनकी समता कोकनद पर बैठे भ्रमरों से की गयी है | प्रकाशकार ने 'रवणं रुत् घृता रुद्यैस्ते घृतरुतः सशब्दाः रः अग्निस्तद्वदक्षीणि पिङ्गलानि नेत्राणि येषां ते राक्षाः एवंभूता भ्रमरा यत्र' यह विग्रह करके 'भन भन करते पिंगल नेत्र भ्रमरों से युक्त' अर्थं भी किया है । नल के पक्ष में 'रुद्रस्य अक्षमान् धूनोति रुद्राक्षमघु तच्च तद्व्रतं च घृतं येन' यह विग्रह करके राजा के हाथ को 'शिवद्रोही को पराभव देने वाला' बताया है । मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ शब्दश्लेष- उपमा उत्प्रेक्षा का संकर है । 'इव' के कारण 'भ्रम' की उत्प्रेक्षा हो गयी है, अन्यथा 'भ्रान्तिमान्' अलंकार स्पष्ट है । पतगश्चिरकाललालनादतिविश्रम्भमवापितो नु सः । अतुलं विदधे कुतूहलं भुजमेतस्य भजन्महीभुजः ॥ ७ ॥ जीवातु - अथास्य स्वयमागमनादुत्प्रेक्षते - पतग इति । पतङ्गो हंसश्चि

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