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नैषधमहाकाव्यम् टिप्पणी--नल जैसे समर्थ व्यक्ति किसी से याचना नहीं करते, दान नहीं लेते, इस कारण हंस जो कुछ प्रिय देना अथवा करना चाहता है, उससे उपकृत होने में संकोच हो सकता है। इस संकोच के निराकरणार्थ हंस का यह तर्क है कि समर्थ व्यक्ति को भी भाग्यवशात् बिन-माँगे मिले अभीष्ट का ग्रहण करना अनुचित नहीं है। इसके अतिरिक्त शुभाशुभ-प्राप्ति में दैव ही कारण है, उसका परिहार कोई कर ही नहीं सकता, सो राजा को भी स्वीकारने में संकोच करना तर्कसंमत नहीं हैं । और हंस तो एक प्रकार से अदृश्य दैव का हाथ है, जिसके माध्यम से नल का प्रियसाधन हो रहा है। काव्यलिंग अलंकार ॥ १२ ॥
पतगेन मया जगत्पतेरुपकृत्यै तव किं. प्रभूयते ?। इति वेद्मि, न तु त्यजन्ति मां तदपि प्रत्युपकर्तुमर्तयः ॥ १३ ॥
जीवातु-ननु सार्वभौमस्य मे तिरश्चा त्वया किमुपकरिष्यते, तत्राहपतगेनेति । पतगेन पक्षिमात्रेण मया जगत्पतेः सार्वभौमस्य तवोपकृत्य उपकाराय प्रभूयते क्षम्यते किं न भूयत एवेत्यर्थः, भावे लट्, इति वेनि अक्षमत्वं जानामि । तदपि तथाप्यर्त्तयो यास्तु त्वया विनिवर्तिता इति भावः । मां प्रत्युपकतु न त्यजन्ति प्रत्युपकरणाय प्रेरयन्तीत्यर्थः । अत्र पतगोऽप्यहं महोपकारिणस्ते महोपकारं करवाणीति भावः ॥१३॥ ___ अन्वयः--जगत्पतेः तव उपकृत्य मया पतगेन किं प्रभूयते ? इति वेद्मि, तदपि अत्तंयः तु मां प्रत्युपकत्तुं न त्यजन्ति ।
हिन्दी--संसार के स्वामी तेरा उपकार मैं सामान्य पक्षी क्या कर सकता हूँ ? ( नहीं कर सकता ) यह मैं समझता है, तथापि तेरा प्रत्युपकार करने की तीव्रतम आकुलताएँ मुझे नहीं छोड़तीं।
टिप्पणी--एक चक्रवर्ती नरेश का एक सामान्य निरीह पक्षी उपकार क्या करेगा ? यह तथ्य जानते-बूझते हुए भी हंस इतना विवश है राजा के उपकार का बदला देने के लिए कि प्रत्युपकार की उद्दाम इच्छा उसे पीड़ादायक प्रतीत हो रही है, इस असमर्थ-जैसे निरीह पक्षी को भी राजा के हितसाधनार्थ विवश कर रही है-प्रेरित कर रही है । हेतु और अनुप्रास ॥ १३ ॥