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नैषधमहाकाव्यम्
स्नरार्द्धचन्द्र षुनिभे क्रशोयसां स्फुटे पलाशेऽध्वजुषाम्पलाशनात् । स वृन्तमालोकत खण्डमन्वितं वियोगिहृत्खण्डिनि कालखण्डजम् ।।४।।
जीगतु--स्मराद्धेति । नलः स्मरस्य योऽर्द्धचन्द्रः अर्द्धचन्द्राकार इषुस्तन्निभे तत्सदृशे नित्यसमासत्वादस्वपदविग्रहः, अत आहामरः-'स्युरुत्तरपदे त्वमो । निभसङ्काशनीकाशप्रतीकाशोपमादयः' इति । वियोगिनां हृत्खण्डिनि हृदयवेधिनि ऋशीयसां कृशतराणामध्वजुषामध्वगामिनाम् पलाशनात् मांसभक्षणात् पलाशे पलमश्नातीति व्युत्पत्त्या पलाशसंज्ञाभाजि किंशुककलिकायामित्यर्थः । अन्वितं सम्बद्धं वृन्तं प्रसवबन्धनं तदेव कालखण्डजं खण्डं यकृत्खण्डमिति व्यस्तरूपकम् । आलोकत आलोकितवान् । 'कालखण्डं यकृत्समे' इत्यमरः । तच्च दक्षिणपार्श्वस्थः कृष्णवर्णो मांसपिण्डविशेपः ॥८४॥
अन्वयः-सः स्मराद्धचन्द्रेपुनिभे वियोगिहृत्खण्डिनि शीयसाम् अध्वजुपां पलाशनात् स्फुटं पलागे अन्वितं वृन्तं कालखण्ड खण्डम् ( इव ) आलोकत ।
हिन्दी-उसने काम के अर्द्धचंद्रबाण के तुल्य विरहिजनों के हृदय-विदारक' अत्यंत कृश ( दुर्वल ) राहगीरों (पथिकों ) के पल ( मांस ) को खाने से स्पष्टत: 'पलाशः' नाम को सार्थक करते ( पलं मांसम् अश्नातीति पलाशः ) पलाश में लगे कृष्णवणं प्रसववंधन ( कलो के निम्नभाग में लगा काला खोल) को (पथिको के) कालखण्ड से जात खंड ( कलेजे के टुकड़े ) के समान देखा।
टिप्पणी-कवि ने पलाश की लाल कली में वियोगी पथिकों के 'पलाश' ( मांसाशी ) द्वारा खाये गये कलेजे के टुकड़े की कल्पना की है । कली के नीचे के भाग में जो ऊपरी खोल का काला पत्ता जैसा लगा रह गया है, वह उस खाये गये मांस के सूख जाने के कारण है । नारायण पंडित ने यहाँ लुप्तोत्प्रेक्षा का निर्देश किया है, चन्द्रकलाकार ने उपमा-प्रतीयमानोत्प्रेक्षा के संकर का और विद्याधर ने रूपक और अत्प्रेक्षा का ॥८४॥
नवा लता गन्धबहेन चुम्बिता करम्बिताङ्गी मकरन्दशोकरैः। दृशा नृपेण स्मितशोभिकुड्मला दरादराभ्यां दरकम्पिनि पपे ॥ ८५॥
जीवातु-नवेति । गन्धवहेन वायुना चुम्बिता स्पृष्टा अन्यत्रानुलिप्तेन पुंसा वीक्षिता मकरन्दशीकरैः पुष्परसकणैः करम्बिताङ्गीत्यामिश्रितरूपा