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प्रथमः सर्गः
वादनात्पिकानामलीनाञ्च गीतेर्गानात् शिखिनां मयूराणां लास्यलाघवात् नृत्य नैपुण्यात् च वनेऽपि तं नलं तौर्य्यत्रिकं नृत्यगीतवाद्यत्रयं कर्त्तृ, आरराघ आराधयामास । तथा हि- भाग्यभाक् भाग्यवान् जनः क्व भुज्यत इति भोग सुख तं नाप्नोति सर्वत्रैवाप्नोतीत्यर्थः । सामान्येन विशेषसमर्थन रूपोऽर्थान्तरन्यासः ।। १०२ ।।
अन्वयः -- ( नलः ) विलासवापीतटवीचिवादनात् पिकालिगीतेः शिखिलास्यलाघवात् वने अपि तं तोयंत्रिकम् आरराघ; भाग्यभाक् जनः क्व भोगम न आप्नोति ?
हिन्दी - राजा नल ने विलास बावड़ी के तट से टकराती लहरों से वादन, कोकिल-भ्रमरों से गीत और मयूरों के नृत्य कौशल से नर्तन - इस वन में भी तौयंत्रक ( नृत्य, गीत, वाद्य ) का आनंद पाया; माग्यवान् व्यक्ति को कहाँ भोग-ऐश्वर्य नहीं प्राप्त हो जाता ? सर्वत्र ही प्राप्त हो जाता है ।
टिप्पणी-- राजा को वन में भी 'तौयंत्रिक' प्राप्त हो जाने से यह भाव निकलता है कि भाग्य का लेख कहीं पीछा नहीं छोड़ता । राजा के भाग्य में यह सुख था, सो वन में भी मिल गया; अथवा राजा चित्त-विनोदार्थमन बहलाने एकांत की खोज में निकला था, पर सुख -मोग ने, जो वियोगदशा में उसे माता नहीं था, उसका पीछा न छोड़ा और उसके खेद का कारण बना । १०४वें श्लोक से यह स्पष्ट हो गया है । सामान्य से विशेष समर्थन रूप अर्थान्तरन्यास ॥ १०२ ॥
तदर्थमध्याप्य जनेन तद्वने शुका विमुक्ताः पटवस्तमस्तुवन् । स्वरामृतेनोपजगुश्च शारिकास्तथैव तत्पौरुपगायनीकृताः ॥ १०३ ॥ जीवातु-- तदर्थमिति । जनेन सेवकजनेन तदर्थ नलप्रीत्यर्थमध्याप्यः स्तुति पाठयित्वा तस्मिन् वने विमुक्ता विसृष्टाः पटवः स्फुटगिरः शुकास्तं नलमस्तुवन् । तथैव शुकवदेव तदर्थमध्याप्य मुक्ताः तत्पौरुषस्य नलपराक्रमस्यः गायिन्यो गायकाः कृता गायनीकृताः शारिकाः शुकवध्वः स्वरामृतेन मधुरस्वरेणेत्यर्थः । उपजगुश्च ॥ १०३ ॥