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नैषधमहाकाव्यम्
काम का विक्रम (विकार) क्रमशः प्रकट हो जाने से लज्जायुक्त हो गया । प्रथम चरण में 'पकार' की आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास है, पूर्वार्द्ध में अन्त्य और उत्तरार्द्ध में 'व, र' और 'क्रम' की आवृत्ति होने से छेकानुप्रास है । इन तीनों अनुप्रासों की निरपेक्षता से स्थिति होने के कारण संसृष्टि ॥५३॥
अलं नलं रोद्धुममी किलाभवन् गुणा विवेकप्रभवा न चापलम् । स्मरः स रत्यामनिरुद्धमेव यत्सृजत्ययं सर्गनिसर्ग ईदृशः ॥ ५४ ॥ जीवातु —- ननु विवेकिनः कुत इदं चापल्यम् ? इत्यत आह - अलमिति । युक्तायुक्तविचारो विवेकः तत्प्रभवा अमी गुणा धैर्यादयः नलमिदं स्त्रीला भरूपं चापलं निरोद्धुम् 'दुहियाची' त्या दिना रुन्धेद्विकर्मकत्वम् । अलं समर्था नाभवन् किल खलु । तथा हि-स्मरः कामः । जनमिति शेषः । जनं रत्यां रागे अनिरुद्धसृजति अनीश्वरमवशं करोति रत्यां रतिदेव्यामनिरुद्धाख्यं कुमारं सृजतीति ध्वनिः । इति यत् अयं सर्गं निसर्गः सृष्टिस्वभाव इदृश: । ' रतिः स्मरप्रियायां चरागेऽपि सुरतेऽपि च' । 'अनिरुद्धः कामपुत्रेऽरुद्धे चानीश्वरेऽपि चे 'ति विश्वः । अत्र स्मररागदुर्वारतायाः सर्वसृष्टिसाधारण्येन चापलदुर्वारतासमर्थनात् सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः ॥ ५४ ॥
अन्वयः --अमी विवेकप्रभवा गुणाः नलं चापलं रोद्धुम् अलं न अभवन् किल, अयम् ईदृशः सर्गनिसर्गः यत् स्मरः रत्याम् अनिरुद्धम् एव सृजति ।
हिन्दी - - ये विवेक से समुद्भूत ( 'विवेकप्रमुखाः' पाठान्तर में विवेकादि ) गुण नल की चपलता का अवरोध- निवारण करने में समर्थ न हो पाये, यह ऐसी संसार की प्रकृति -- स्वभाव है कि काम ( अवस्थाविशेष होने पर मनुष्य को) प्रणय में स्वच्छंद बना ही देता है ।
टिप्पणी -- भावार्थ यह है कि तारुण्य में काम सभी को चंचल बनाकर प्रणय में स्वच्छन्द बना देता है । स्मर, रति, अनिरुद्ध - शब्दों के प्रयोग से कवि पौराणिक कथा का भी संकेत देता है - कामावतार कृष्णतनय प्रद्युम्न अपनी रति - अवतारिणी प्रिया में अनिरुद्ध नामक पुत्र को ही उत्पन्न करता है । मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ सामान्य से विशेष का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास है, विद्याधर ने इसमें उत्प्रेक्षा और हेतु अलङ्कार माने हैं ॥ ५४ ॥