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प्रथमः सर्गः
अन्वयः-प्रकाशरूपाः निजाः मयूखाः इव अश्ववाराः स्फुटारविन्दाङ्कितपाणिपङ्कजं जवनाश्वयायिनं तीक्ष्णदीधितम् इव तं मनुजेशम् अन्वयुः ।
हिन्दी-प्रकाश-उजियाला ही जिनका रूप-आकार है, ऐसी स्वर्णीय किरणों के तुल्य सुन्दर शरीरधारी स्वकीय राजा के निजी अश्ववार-घोड़ों के रखवारे करकमल में खिला कमल धारते, वेगवान् अश्वों से यात्रा करते तीव्र किरणमाली सूर्य के समान जिसके करकमल में खिले कमल का चिह न है और वेगवान् अश्वपर सवार है, उस नरनाथ नल के पीछे-पीछे चले।
टिप्पणी--इस पद्य में नल की सूर्य से और उसके पीछे चलते अश्ववारों की सूर्यानुयायिनी किरणों से तुलना की गयी है। समुचित शब्दों के प्रयोग द्वारा इस साम्य की संरचना की गयी है, इसी आधार पर विद्याधर ने इस पद्य में उपमा, रूपक और श्लेष अलङ्कार माने हैं, चंद्रकलाकार ने इसे पूर्णीपमा कहा है ॥६५॥
चलन्नलकृत्य महारयं हयं स वाहवाहोचितवेषपेशलः । प्रमोदनिष्पन्दतराक्षिपक्ष्मभिर्व्यलोकि लोकैनंगरालयनलः ॥६६॥
जीवातु चलन्निति। वाहवाहोचितवेषपेशल: अश्ववाहोचितनेपथ्यचारुः 'चारौ दक्षे च पेशल' इत्यमरः । स नलो महारथमतिजवं हयमलङ्कृत्य चलन् स्वयं हयस्य भूषणीभूय गच्छन्नित्यर्थः । प्रमोदेन निष्पन्दतराणि अत्यन्तनिश्चला नि अक्षिपक्ष्माणि येषान्तरनिमेषदृष्टिभिरित्यर्थः । नगरालयनगर निवासिभिरित्यर्थः । लोकर्जनZलोकि विस्मयहर्षाम्यां विलोकित इत्यर्थः । वृत्त्यनुप्रासोऽलङ्कारः ॥ ६६ ॥
अन्वयः--प्रमोदनिःस्पन्दतराक्षिपक्ष्मभिः नगरालयः लोकः महारयं हयम् अलङ्कृत्य चलन् वाहवाहोचितवेषपेशलः सः नलः व्यलोकि ।
हिन्दी-प्रहर्ष के कारण अपलकलोचन ( पलक झपाये विना ) नगरवासी प्रजाजनों ने महावेगवान् अश्व को सुशोभित कर जाते हुए अश्वारोहियों के योग्य वेष में सुन्दर लगते उस नल को देखा।
टिप्पणी-नल के अश्वारूढ होकर जाते समय उसकी तेजस्विता पर मुग्ध नगरवासियों का सानन्द अपलक देखना वर्णित कर कवि ने राजा के प्रति पुरवासी प्रजाजनों का आदर व्यक्त किया है। विद्याधर के अनुसार यहां छेकानुप्रास है और मल्लिनाथ के अनुसार वृत्त्यनुप्रास ॥६६॥