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नैषधमहाकाव्यम् सवर्णमित्यर्थः, अन्यत्र चन्द्रभ्रातरमेकयो नित्वादिति भावः । उच्चैःश्रवस इन्द्राश्वस्य श्रियं हरन्तं तत्स्वरूपमित्यर्थः, तं हयमारुरोह । अत्रोच्चैःश्रवसः श्रिय हरन्तमिवेत्युपमा । सा च श्लिष्टविशेषणात् सङ्कीर्णेयं क्षितिपाकशासन इत्यतिशयोक्तिः ।। ६४ ॥
अन्वयः-जिताखिलक्षमाभृत् अनल्पलोचनः क्षितिपाकशासनः सः सिन्धुजं शीतमहः सहोदरम् उच्चैःश्रवसः श्रियं हरन्तं तं हयम् आरुरोह ।
हिन्दी--समस्त क्षमा ( पृथ्वी ) को धारण करनेवाले पर्वतों के जयीसहस्रनेत्रधारी ( इंद्र के समान ) समस्त राजाओं का विजेता, विशालनेत्रधारी पृथ्वीमंडल पर पाकशास्त्र का प्रणेता होने से क्षितिपाकशासन अर्थात् धरती का इन्द्र वह राजा नल सिन्धु अर्थात् समुद्र से उत्पन्न और ( अतएव ) चन्द्र के महोदर उच्चैःश्रवा ( इन्द्राश्व ) की तुलना करते ( अथवा उससे भी श्रेष्ठ) सिंधु देश के चन्द्रमा के समान शुभ्र अश्व पर आरूढ हुआ।
टिप्पणी-समान धर्मता के आधार पर मल को क्षितिपाकशासन अर्थात् महीमहेन्द्र और उसकी सवारी के अश्व को उच्चःश्रवा की समता में रखा गया। 'सिंधुजम्' शब्द अश्व के उत्तम कुल, बल और महाकायत्व का द्योतक है । सत्तावनवें श्लोक से आरब्ध 'कुलक' समाठ । विद्याधर के अनुसार यहाँ उपमा, परिक और श्लेष अलङ्कार हैं, मल्लिनाथ ने श्लिष्टविशेषण होने के कारण संकीर्णा उपमा और अतिशयोक्ति का निर्देश किया है, चंद्रकलाकार यहाँ श्लेष-उपमा-निदर्शना की संसृष्टि मानते हैं ॥६४॥
निजा मयूखा इव तिग्मदीधिति स्फुटारविन्दाङ्कितपाणिपङ्कजम् । तमश्ववारा जवनाश्वयायिनं प्रकाशरूपा मनुजेशमन्वयुः ॥६५।।
जीवातु-निजा इति । निजा आत्मीयाः प्रकाशरूपा उज्ज्वलाकारः भास्वररूपाश्च अश्वान्वारयन्तीत्यश्ववाराः अश्वारोहाः स्फुटारविन्दाङ्कितपाणिपङ्कजं पद्मरेखाङ्कितहस्तम्, अन्यत्र पद्महस्तं जवनो जवशील: 'जुचक्रम्ये'त्यादिना युच् । तेनाश्वेन अन्यत्र तैरश्वर्यातीति तथोक्तं मनुजा मनोर्जाता मनुजा नरास्तेषामीश राजानञ्च त नलं तिग्मदीधिती सूर्य्य मयूखा इव अन्वयुः अन्वगच्छन् । यातेर्लङि झेर्जुसादेशः ॥ ६५॥