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नैषधमहाकाव्यम्
टिप्पणी- मानवसुन्दरियां तो नल में ऐसी रम रही थीं कि वह सम्मुख हो या न हो, भावनावश वे सदा उसका दर्शन पाती ही रहती थीं ।
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मल्लिनाथ ने अतिशयोक्ति मानी और कारण की समग्रता में भी कार्य की अनुत्पत्ति के आधार पर विद्याधर ने विशेषोक्ति ॥ २९ ॥
न का निशि स्वप्नगतं ददर्श तं जगाद गोत्रस्वलित च का न तम् ? तदात्मताध्यातधवा रते च का कारवान स्वनामयोद्भव ? ॥३०॥ जीवातु - नेति । का नारी निशि रात्रौ तं नलं स्वप्नगतं न ददर्श ? सर्वैव ददर्शेत्यर्थः । का च गोत्रस्खलितेषु नामस्खलनेषु त न जगाद स्वभर्तृनाम्नि उच्चरितव्ये तन्नाम न उच्चरितवती अपि तु सर्वेव तथा कृतवती इत्यर्थः । का चरते सुरतव्यापारे तदात्मतया नलात्मतया ध्यातः चिन्तितः धवः भर्त्ता यया तथाभूता 'घवः प्रियः पतिर्भर्त्ते' त्यमरः । स्वस्य आत्मनः मनोभवः कामः तस्य उद्भवः तं वा न चकार ? अपि तु सर्वेव तथा चकारेत्यर्थः । अतिशयोक्तिरलङ्कारः ॥ ३० ॥
अन्वयः - का निशि तं स्वप्नगतं न ददर्श का च गोत्रस्खलिते तं न जगाद, तदात्मताध्यातघवा का च वा रते स्वमनोभवोद्भवं न चकार ।
? नल की भावना
हिन्दी - कौन सुन्दरी उसे रात में सपने में मिली नहीं देखती थी और कौन नामोच्चारण में भटककर उसका नाम नहीं ले देती थी से पति का ध्यान करती किस रमणी ने सुरत-काल में अपने नहीं किया ?
काम का उद्भव
टिप्पणी - प्रत्येक सुन्दरी नल का ही स्वप्न देखती थी, उसका ही नाम लेती थी और उसकी ही भावना करके अपने पति को रमण किया करती थी । इस श्लोक में स्वप्नदर्शन, नामस्मरण और नलभावना से रमण -- इन तीन प्रकारों से कवि ने मुग्धा, मध्या और प्रगल्भा नायिकाओं के नलानुराग का चित्रण किया है । काकुवक्रोक्ति तो है ही, मल्लिनाथ के अनुसार अतिशयोक्ति है, क्योंकि असम्बन्ध में भी सम्बन्ध - कथन है । छेकानुप्रास भी है ॥ ३०॥
श्रियास्य योग्याहमिति स्वमीक्षितुं करे तमालोक्य सुरूपया धृतः । विहाय भैमीमपदर्पया कया न दर्पणः श्वासमलीमसः कृतः ? ॥३१॥