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( ६७ ) वरदराज ने कहा है-- प्रत्यक्षलक्षणविचक्षणवादिवृन्ददुर्दन्तिदन्तदलनानि विलासमात्रम् । येषां जयन्ति त इमे जगति प्रतीताः श्रीहर्षसिंहनररूपकरप्रहाराः ॥ श्रीहर्ष को समस्तशास्त्रों का वेत्ता मानते हुए कहा गयाः-- __ अमोघचिन्तामणिसिद्धिप्राप्त प्रमामेववं प्रथितप्रतापम् ।
समस्तशास्त्रप्रतिबुद्धविद्यं श्रीहर्ष मेकं विबुधं प्रतीमः ।। वे अनवद्य और हृद्य वाणी की वर्षा करनेहारे खलप्रवर्षी उत्कृष्ट कवि थे:
कविषु दधतमुत्कर्ष विस्फुरदनवद्यहृद्यवाग्वर्षम् ।
इह खलु खलप्रघर्ष श्रीहर्ष नौमि हर्षसङ्घर्षम् ॥ 'माहित्य विद्याधरी'कार विद्याधर की उक्ति (अष्टो व्याकरणानि-इत्यादि) पहिले उद्धृत की जा चुकी है, विद्याधर की टीफा को ध्यान में रखते हए 'नैषध' के अन्य टीकाकार चाण्डू पंडित ने उसकी गंभीरता को अथाह बताया है
टीका यद्यपि सोपपत्तिरचनां विद्याघरो निर्ममे
__ श्रीहर्षस्य तथापि न त्यजति सा गंभीरतां भारती। दिक्कूलङ्कषतां गतजंलघरैरुद्ग्राह्यमाणं मुहुः
पारावारमपारमम्बु किमिह स्याज्जानुमात्रं क्वचित् ।। सचमुच श्रीहर्ष का 'नैषधीयचरित' विद्वदौषध ही है, उसको समझनाबूझना, उसकी व्याख्या सरल नहीं । श्रीहर्ष के कृतित्व को 'परफैक्ट मास्टरपीस आफ बैड स्टायल' जिन विद्वानों ने कहा है, उनसे विनतापूर्वक यही कहा जा सकता है--'माऽस्मिन् भवान् खेलतु ।'
श्रीहर्ष का 'नैषधीयचरित' पांडित्यपूर्ण शैलो-विदग्धजनसंमानिता प्रौढ शैली में लिखा गया है, वह 'कुमारों' के लिए नहीं है, न भावपक्ष को दृष्टि से, न कलावधारणा की दृष्टि से । अंग्रेजी के विज्ञ महाकवि मिल्टन की कलाविज्ञता और हिन्दी के आचार्य कवि केशवदास का पांडित्य इसी परंपरा में आनेवाले प्रयत्न हैं।
(७) नाम और उद्देश्य--नाट्याचार्य भरतमुनिने रूपक-विकल्पन के तीन आधार माने हैं-नाम, कर्म और प्रयोग-'नामतः कर्मतश्चैव तथा चैव प्रयोगतः । ( ना० शा० १८११)। नाम से ही उद्देश्य प्रकट हो जाता है। श्रीहर्ष ने अपने महाकाव्य का नाम नायक को आधार बनाकर रखा'-नैषधीय