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नैषधमहाकाव्यम्
हिन्दी -- अष्ट दिक्-पालों ( इन्द्र, अग्नि, यम, वायु, सूर्य, वरुण, चन्द्र, कुबेर ) के अंशों से उत्पन्न ( स्मृति के अनुसार राजा अष्ट लोकपालों की मात्रा से युक्त होता है ) अष्ट दिशाओं का स्वामी वह ( राजा नल ) काम के प्रसार की अवरोधक, अपने को त्रिनेत्र शिव के अवतार होने का बोध कराने वाली द्वय से अधिक अर्थात् तीसरी शास्त्र रूप दृष्टि को धारण करता था ।
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टिप्पणी- --राजा सब देवों से बड़ा 'महादेव' था, यह दो तर्कों से प्रमाणित किया गया है - ( १ ) इन्द्रादि लोकपाल एक-एक दिशा के स्वामी हैं, नल आठों का । ( २ ) वह सामान्य नेत्र युगल के अतिरिक्त त्र्यम्बक शिव के समान काम अर्थात् स्वेच्छाचार की निरोधिका शास्त्र दृष्टि से समन्वित था । राजा नल शास्त्रानुसार आचरण करता था । और अष्टलोकपालांश था, इस प्रकार वह त्रिनेत्र शिव के अवतार - सदृश था । मनुस्मृति ( ५/९६ ) के अनुसार - 'सोमाग्न्यनिन्द्राणां वित्ताप्पत्योर्यमस्य च । अष्टाभिश्च सुरेन्द्राणां मात्रा मिनिर्मितो नृपः ॥'
साहित्य-विद्याधरी के अनुसार यहाँ उनमा है । 'दृशम् शास्त्राणि' में रूपक और नल के विभूति भेद होने पर भी अभेद कथन से अतिशयोक्ति है, इस प्रकार रूपक और अतिशयोक्ति का 'संकर' है ।
पदैश्चतुभिस्सुकृते स्थिरीकृते कृतेऽमुना के न तपः प्रपेदिरे ? | भुवं यदेकाङ्घ्रिकनिष्ठया स्पृशन् दधावत्रर्मोऽपि कृशस्तपस्विताम् ॥७॥
जीवातु - अथास्य प्रभावं दर्शयति-पदंरिति । अमुना नलेन कृते सत्ययुगे सुकृते धर्म वृषरूपत्वात् चतुभिः पदैः चरणैः - 'तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते । द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे ॥' इत्युक्तचतुविधैरिति भावः स्थि
कृते निश्चलीकृते इति यावत्, के जनाः तपः चान्द्रायणादिरूपं कठिनं व्रतं का कथा ज्ञानादीनामिति भावः, न प्रपेदिरे ? अपि तु सर्व एव तपश्चेरुरित्यर्थः । यत् यतः अधर्मोऽपि का कथा अन्येषामित्यपि शब्दार्थः कृशः, दुर्बल: सन् एकया अघ्रेश्चरणस्य कनिष्ठया कनिष्ठयाऽङ्गुल्येत्यर्थः भुवं स्पृशन् कृतेऽपि अधर्मस्य लेशतः सम्भवादंशेनेति भावः तपस्वितां तापसत्वं दीनत्वच 'मुनिदीनौ तपस्विना' विति विश्वः । दधौ धारयामास । अस्य शासनादधर्मोऽपि धर्मेषु आसक्तोऽभूत् ।