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व्यतिरेक आदि के माध्यम से भी हुई है। इसके अतिरिक्त विरोधाभास, विशेषोक्ति, जाति आदि का भी प्रयोग किया गया है। रूपक उत्प्रेक्षा का तो अनेक स्थानों पर योग हुआ है । (द्रष्टव्य ११५८, १५८४ आदि ) । अनेक अलंकारों के मेल के तो अनेक उदाहरण हैं । द्रष्टव्य १।१७ ( उपमा-श्लेष सहोक्ति ), ११२० ( छेकानुप्रास परिकर ), ११२१ ( अपह नुति उत्प्रेक्षा ), २।१०८ (उपमा रूपक-जाति) आदि-आदि । अर्थान्तरन्यास के भी अत्यंत भावमय प्रयोग 'नैषध' में शताधिक हैं। उदाहरणार्थ-११५०, ५४, १०२, १३१, २।४८ आदि । स्वभावोक्ति (जाति) के अच्छे मनोरम उदारहाण हंस-प्रसंग में हैं । (द्रष्टव्य २।२, २१:० आदि)। समासोक्ति के उदाहरण के लिए तो 'नैषध' का 'नवा लता गन्धवहेन चुम्बिता'—इत्यादि ( ११८५ ) काव्यशास्त्रियो में प्रसिद्ध है।
'नषध' अलंकारों का सागर है। उक्त अलंकारों के अतिरिक्त उनकी वक्रोक्तियाँ और व्यंग्योवितयाँ बड़ी प्रभाव-शालिनी हैं । पादांत यमक का तो अत्यन्त स्मरणीय और दर्शनीय उदाहरण है-यथासीत् कानने तत्र विनिद्र. कलिका लता । तथा नलच्छलासक्तिविनिद्रकलिका लता || ( १७।२१८ ),
श्रीहर्ष की शैली विद्वत्तापूर्ण है। कहा जाता है—'नैषधं विद्रदौषधम् ।' 'नषध' में यह विद्वत्ता प्रचुर मात्रा में प्रमाणित है। 'साहित्यविद्याधरी'कर्ता ने श्रीहर्ष को विविध शास्त्रों का वेत्ता सुधी कोविद कहा है
अष्टौ व्याकरणानि तर्क निवहः साहित्यसारो नयो
वेदार्थावगतिः पुराणपठितिर्यस्यान्यशास्त्राण्यपि । नित्यं स्युः स्फुरितार्थदीपविहताज्ञानान्धकाराण्यसौ
व्याख्यातुं प्रभवत्यमुं सुविषमं सर्ग सुधीः कोविदः ।। 'नैषधपरिशीलन' के विद्वान् रचयिता डॉ० चंडिकाप्रसाद शुक्ल ने अपनी इसी प्रकार की मान्यता पुष्टि में डॉ. सुशीलकुमार दे के 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' से जो उद्धरण दिया है, वह भी 'नैषध'कार की विद्वत्ता और पांडित्य का समर्थन करता है—'नषधचरित केवल एक वैदुष्यपूर्ण काव्य ही नहीं है, अपितु अनेक प्रकार से परंपरागत ज्ञान का भांडार है।'