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हृदय को छूने की क्षमता भी । 'श्रीहर्ष' और 'नैषधीयचरित' के संमान्य अध्येता और व्याख्याता डॉ० चंडिकाप्रसाद शुक्ल का यह निष्कर्ष इस विषय में उचित ही है - ' नैषध में जिन वस्तुओं का वर्णन उन्होंने ( श्रीहर्ष ने ) किया है, उनमें उनकी वृत्ति स्वयं रमी हुई है । "" " प्रबल कल्पनाशक्ति और बहुज्ञता के साथ-साथ उन उक्तियों में हृदय को स्पर्श करने की क्षमता " है । वे एक अत्यंत सरस हृदय से निकली समझ पड़ती हैं ।' (६) शैली - ' नैषधीयचरित' में यद्यपि कहा गया है कि 'धन्यासि वैदभिगुणैरुदारैः ' ( ३।११६ ) और इस दृष्टि से अनेक विद्वानों ने इस काव्य को वैभिरीति प्रधान माना भी है और सामान्यतः यह सत्य भी है, तथापि अल्पसमासयुता पाञ्चाली और ओजः प्रधाना गौडी पदरचना से 'नैषध' रहित नहीं है । ( द्रष्टव्य ११२ ) इसमें 'समस्तपञ्चषट्पदबन्ध' भी हैं और आडम्बर- पूर्ण समासबहुल भी ( द्रष्टव्य १९ । १५३ में दो चरणों का समस्तपद ) किंतु प्रचुरता माधुर्यव्यंजक वर्गों की ही है और रचना- लालित्य भी; ओज, प्रसाद, माधुर्य - तीनों ही गुण 'नैषध' के शृंगार हैं । यथोचित, यथावसर तीनों रीतियों और तीनों गुणों से युक्त पदरचना है । पदलालित्य तो 'नैषध' का उल्लेख्य ही है - ' नैषधे पदलालित्यम् ।' समासबहुल पद हों, या अल्पसमास - लालित्य उनमें सर्वत्र है । अनुप्रास की छटा, श्लेषमय पदयोजना । पदो की ऐसी समायोजना कि एक-एक वाक्य अनेक अर्थ देने लगें । स्वयंवर का 'पंचनलीय' प्रसंग तो इस श्लिष्टपदयोजना के लिए विख्यात ही है, अन्य भी अनेक प्रसंग ऐसे हैं, जिनसे कवि का पद योजना-सौष्ठव प्रकट होता है । दमयन्ती ने कहा - 'चेतो नलङ्कामयते मदीयम्' । ( ३।६७ ) । इस एक वाक्य से तीन भाव प्रकट हुए - ( १ ) मेरा चित्त लंका की कामना नहीं करता - 'चेतो न लङ्कामयते । ( २ ) चित्त नल की कामना करता है-'चेतो नलं कामयते' । (३) और यदि यह न हो सके तो आग में जलने को जी चाहता है - 'चेतोऽनलङ्कामयते' । लज्जाशीलाकुमारी की लाज भी रह गयी और हृदयगत भाव भी ( समझने वाले के लिए ) स्पष्ट हो गये । 'साहित्यविद्याघरी' के अनुसार यहाँ श्लेष भले ही हो, पर यह सामान्य श्लेष योजना ही नहीं है, कवि के 'एकः शब्दः सम्यग्ज्ञातः सुष्ठु प्रयुक्तः' का उदाहरण है ।