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दरिद्र हो गयी । ( १।१५) । नल को यही असंतोष था कि वे सुमेरु के टुकड़े करके याचकों को क्यों न दे पाये, दान जल के व्यय से सागर को भी मरु क्यों न बना डाला? (१।१६ ) । राजा नल से अभीष्ट-याचना सभी करते थे ( ३.१५)। नल से देवों ने भी याचना की। (५।७७)। और उन्हें 'अर्थी' पाकर नल का रोम-रोम हृषित हो उठा ( ५।७९ )। वे मांगे जाने पर प्राण तक दे सकते थे। ( ५।८१ ) । उनका सिद्धांत था कि 'अथिने न तृणः वद्धनमात्रं किन्तु जीवनमपि प्रतिपाद्यम् । (५।८६ )। जो जन्म याचकों के मनोरथ पूर्ण करने के लिए नहीं हुआ, धरती का बोझा वही है, न ये वृक्ष हैं, न पर्वत, न समुद्र । ( ५।८८)।
हास्य-हास्य के भी यत्किचित् प्रसंग 'नैषध' में हैं । षोडश सर्ग के भोजप्रसंग में स्वाभाविक और अवसरोचित हास्य-प्रसंग हैं। वारातियों और परोसनेवालियों में अच्छा गूढ हास-परिहास चला है। दमयन्ती के भाई पदम ने भोजन के बाद मुखशुद्धि के लिए जो 'पत्रालि' (पान का बीड़ा ) दी, उसका रूप विच्छ जैसा बना दिया गया था, सो भय के मारे बरातियों ने उसे फेंक दिया और सबके हास्य के पात्र बने। (१६।१०९ ) । दही ऐसा था कि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भी बनाते समय इधर-उधर से चुराकर खा लिया, इसीलिए उसमें छिद्र हो गये । ( १६९३ )।
स्वयंवर में मगधराज की कीत्ति-अकोत्ति का दमयन्ती की सखी द्वारा ऐसा श्लिष्ट वर्णन किया गया है कि सभी उपस्थित सभाजन हँस पड़े। (१२॥ १०६) । सप्तदश सर्ग में कलि की उक्ति में व्यंग्य हास्य का कारण बन आया है । बोधिसत्त्व, अग्निहोत्र, इन्द्र, पाप-पुण्य, व्यास, गौतम आदि का व्यंगमय उपहास किया गया है जो श्रद्धालुओं के रोष का कारण भी बन जाता हैस्वयम् इन्द्र भी उन दुर्वर्णों को सुनकर क्रुद्ध हो उठे-'इत्थमाकर्ण्य दुवणं शक्रः सक्रोधतां दधे।' ( १७१८३ ) ।
इसमें संदेह नहीं कि 'नैषध' की हास्य-व्यंग्य-योजना संस्कृत-साहित्य में अनूठी है।
अद्भत-अद्भुत-प्रसंग केवल स्वर्ण-हंस के कारण उत्पन्न हुआ है।