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सांभलो हो || आगल रसिक अधिकार हो | होण ॥ २१ ॥ * ॥ दोहा ॥ चिंतातुर हुवा | सेठजी । ऊंडो करे विचार ॥ अणचिंती या आपदा । किम आई किरतार ॥ १ ॥ सुरी बचन त्रिकाल में || अन्यथा तो नहींथाय ॥ मुज कुल लज्जा रक्षवा | पहलां गई चेताय ॥ २ ॥ ति कारण दिन तीन में । करी वंदोवस्त सब ॥ निज कुटम्ब साथे लही । | जाऊँ विदेशे अब || ३ || इम अपशोस विचार थी । निद्रा गई रिसाय । सूता छे सुख सेज में । पण ते तो नहीं आय ॥ ४ ॥ जेजे युक्ती योजवी । निश्चय कीनो शाह ॥ हीज कार्य साधवा । उग्या दिन का नाह ॥ ५ ॥ ढाल ३ || थारो गयो रे जोबन पाछो नहीं आवे || यह० ॥ ते घरका सज्जन सहू । भोजनादि कर हुवा लहू । निश्चिन्त | देख्या सेठ भावे ॥ पूर्व संचित जैसा फल पावे || सेठजी सारा कुटंब तां | बोलाया एकांत मां । सत्कारीनें बैठावे || पूर्व ॥ २ ॥ कहे सुणजो सह चित लाइ । राते कुल देवी आइ । आपणा हितको चेतावे ॥ पूर्व ॥ ३ ॥ इत्तादिन था सुख लीना जैसा पूर्वे पुण्य कीना । हिवे पाप दिशा आवे || पूर्व ॥ ४ ॥ चेतो तीन दिवस मांही ॥ बहुवां पीयर दो पहचाई ॥ घर धन अन्य ने भोलावे ॥ पूर्व ॥ ५ ॥ और कुटम्ब साथै लेइ । दूर देशे जास्यां रेह । तो लज्जा अपणी रहावे ॥ पूर्व ॥ ६ ॥ मैं तो मानी दे