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कातन्त्रव्याकरणम्
समय लगेगा ? तब गुणाढ्य ने कहा – महाराज ! सभी विद्याओं का मुख व्याकरण है, उसमें पारङ्गत होने के लिए १२ वर्ष लगते हैं, किन्तु मैं आपको छह वर्षों में ही उसे सिखा दूँगा । इस पर शर्ववर्मा ने छह महीनों में ही व्याकरण सिखा देने की प्रतिज्ञा की । शर्ववर्मा की इस प्रतिज्ञा पर गुणाढ्य ने घोषणा की - यदि आप महाराज को छह महीनों में संस्कृत-व्याकरण सिखा देंगे तो मैं प्रचलित संस्कृत, प्राकृत और देशी भाषाओं में से किसी भी भाषा में ग्रन्थरचना नहीं करूँगा । शर्ववर्मा ने अपनी प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में और भी दृढता दिखाते हुए कहा – 'यदि मैं महाराज को छह महीनों में संस्कृत नहीं सिखा सका तो आपकी (गुणाढ्य की) पादुकाएँ १२ वर्षों तक शिर पर धारण करूँगा' | शर्ववर्मा ने यह प्रतिज्ञा तो कर ली, परन्तु इसका निर्वाह करने में कठिनाई प्रतीत हुई । उन्होंने इसके निर्वाह हेतु पर्याप्त विचार किया । लदनुसार तपस्या करके स्वामिकार्तिकेय को प्रसन्न कर लिया और उनकी कृपा से कातन्त्र या कालाप नामक सुलभ बालबोध संस्कृत व्याकरण प्राप्त किया । फिर उन्हीं की अनुकम्पा से सातवाहन राजा को पूर्वोक्त अवधि के अन्तर्गत संस्कृतव्याकरण में पारङ्गत कर दिया ।
ज्ञातव्य है कि स्वामिकार्तिकेय ने प्रसन्न होकर अपना व्याकरण प्रदान करने के लिए जब "सिद्धो वर्णसमाम्नायः" इस प्रथम सूत्र का उच्चारण किया था तो विना ही उनके आदेश के शर्ववर्मा ने अग्रिम सूत्र "तत्र चतुर्दशादौ स्वराः" का उच्चारण कर दिया । इस पर क्रुद्ध होकर स्वामिकार्तिकेय ने कहा था कि अब यह व्याकरण पाणिनीय व्याकरण का उपमर्दक नहीं हो सकता, किन्तु अब यह एक संक्षिप्त व्याकरण के ही रूप में प्रतिष्ठित हो सकेगा- 'अधुना स्वल्पतन्त्रत्वात् कातन्त्राख्यं भविष्यति' (कथा० सा० १।६-७)। ___इस प्रकार इस व्याकरण की रचना का मुख्य प्रयोजन सिद्ध होता है - 'राजा सातवाहन को अल्पकाल में ही व्याकरण का ज्ञान प्राप्त करा देना' । इस सम्बन्ध में उपर्युक्त घटना का चित्रण कलापचन्द्रकार कविराज सुषेण विद्याभूषण ने इस प्रकार किया है
राजा कश्चिन्महिष्या सह सलिलगतः खेलयन् पाणितोयैः सिञ्चस्तां व्याहृतोऽसावतिसलिलतया मोदकं देहि देव ! मूर्खत्वात् तन्न बुद्ध्वा स्वरघटितपदं मोदकस्तेन दत्तो राज्ञी प्राज्ञी ततः सा नृपतिमपि पतिं मूर्खमेनं जगह ॥