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॥श्रीः॥
प्रास्ताविकम्
कातन्त्र व्याकरण की रचना के प्रयोजन
कथासरित्सागर आदि के अनुसार आन्ध्रदेशीय राजा सातवाहन एक बार वसन्त ऋत में रानियों के साथ जलक्रीडा कर रहे थे । उस जलक्रीडा में की जा रही पानी की बौछार से श्रान्त होकर उनकी ब्राह्मणजातीया महारानी ने प्रार्थना की - 'मोदकैर्मा ताडय'। इस वचन का विवक्षित अर्थ था - 'मुझ पर पानी मत फेंको', क्योंकि मैं जलक्रीडा से पर्याप्त श्रान्त हो गई हूँ। किन्तु संस्कृतभाषा तथा उसके व्याकरणशास्त्रीय सन्धिविषयक ज्ञान से अनभिज्ञ होने के कारण राजा ने उसका अर्थ समझा – 'मुझे मोदक = लड्डुओं से मारो' । इस अभिप्राय से राजा ने सेवक भेजकर अनेक मोदक मँगवाए और महारानी को समर्पित किए | तब उपहास करते हुए रानी ने राजा से कहा
राजन्नवसरः कोऽत्र मोदकानां जलान्तरे । उदकैः सिञ्च मा त्वं मामित्युक्तं हि मया खलु ॥ सन्धिमात्रं न जानासि माशब्दोदकशब्दयोः। न च प्रकरणं वेत्ति मूर्खस्त्वं कथमीदृशः॥
(क० स० सा० ७।११६-१७)। महाराज ! जलाशय में मोदकों का क्या उपयोग ? मैंने तो आपसे कहा था - 'मुझ पर पानी मत फेंको ' | आप 'मा' और 'उदक' शब्दों की सन्धि भी नहीं जानते । जलक्रीडा का यह अवसर (प्रकरण) भी आपके ध्यान में नहीं आया । आप इतने अज्ञानी कैसे ?
यह सुनकर राजा लज्जित हुए और उसने अपनी सभा के दो पण्डितोंगुणाढ्य और शर्ववर्मा को बुलवाया और उनसे पूछा - संस्कृत सीखने में कितना