Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
$२७. एवमेत्तिएण पबंधेण बारसण्हं पि संगहकिट्टीणं तदवयवकिट्टीणं च तिव्व-मंददाए अप्पाबहुअं परूविय संपहि एक्स्सेव थोवबहुत्तस्स फुडीकरणटुं किट्टीअंतराणमप्पाबहुअं परूवे. माणो उवरिमं पबंधमाढवेइ
* किट्टीअंतराणमप्पाबहुअंवत्तइस्सामो।
२८. एत्थ किट्टीअंतराणि ति वुत्ते किट्टीगुणगारा घेत्तव्वा, किट्टीगुणगारस्सेव तदंतरण विवक्खियत्तादो। तेसि किट्टीअंतराणमप्पाबहुअमेत्तो भणिस्सामो त्ति वुत्तं होइ । ताणि पुण किट्टीअंतराणि दुविहाणि-सत्थाण-परत्याणगुणगारभेदेण । तत्थ सत्याणगुणगारस्स किट्टीअंतरमिदि सण्णा। परत्थाणगुणगाराणं संगहकिट्टीणं अंतराणि ति सण्णा। एसोच सण्णाभेदो जाव ण जाणाविदो ताव किट्टीअंतराणमिदमप्पाबहुअं परूविज्जमाणं सुहावगम्मं ण होदि ति तदुभयसण्णाभेदमेव ताव परुवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइभाग प्रमाण है । इसका भाव यह है कि उक्त जघन्य कृष्टिको अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकारसे गुणित करनेपर दूसरी कृष्टि उत्पन्न होतो है। जो यह गुणकार है उसे ही यहां अन्तर कहा गया है यह इसका आशय है। पुनः इस दूसरी कृष्टिसे तीसरी कृष्टि अनन्तगणी है। यहां गणकारका प्रमाण पूर्वके गणकारसे अनन्तगणा है। पुनः इस तीसरी कृष्टिसे चौथी कृष्टि अनन्तगुणो है। यहांका गणकार भी पूर्वके गुणकारसे अनन्तगुणा है। इस प्रकार इस विधिसे लोभ संज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिको अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक इस अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिए। यहाँपर प्रथम और द्वितीय संग्रह कृष्टियोंका अन्तररूप परस्थान गुणकार सब अन्तर कृष्टियोंके स्वस्थान गुणकारोंसे अनन्तगुणा है, इसलिए उसे उल्लंघनकर दूसरी संग्रह कृष्टिको प्रथम अन्तर कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर अपनी दूसरी कृष्टिको प्राप्त होती है वह गुणकार अनन्तगुणा है। यह प्रथम संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टिसे अनन्तगुणा है। आगे इस दूसरी अन्तर कृष्टिको जिस गुणकारसे गुणित करनेपर तोसरी कृष्टि प्राप्त होती है वह गुणकार भी पूर्वके गुणकारसे अनन्तगुणा है। यह एक क्रम है जिसके अनुसार आगे क्रोध संज्वलनको तीसरी संग्रह कृष्टिसम्बन्धी अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक सर्वत्र उक्त विधिसे तीव्रमन्दता जान लेनी चाहिए। पुनः इससे आगे अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणा अनन्तगुणी होती है। यह गुणकार भी पूर्वके गुणकारसे अनन्तगुणा है ऐसा जानना चाहिए।
६२७. इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा बारहों संग्रह कृष्टियोंकी और उनकी अवयव कधियोंकी तीव्रता-मन्दताविषयक अल्पबहुत्वका कथन करके अब इसी अल्पबहुत्वका स्पष्टीकरण करनेके लिए कृष्टियोंके अन्तरोंके अल्पबहुत्वका कथन करते हुए आगेके प्रबन्धको प्रारम्भ करते हैं
* अब कृष्टियोंके अन्तरसम्बन्धी अल्पबहुत्वको बतलायेंगे।
$ २८. यहाँ सूत्रमें 'किट्टीअन्तराणि' ऐसा कहनेपर कृष्टियोंका गुणकार ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि कृष्टियोंका गुणकार ही उनके अन्तररूपसे विवक्षित है। कृष्टियोंके उन अन्तरोंके अल्पबहुत्वको आगे कहेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है। परन्तु वे कृष्टि अन्तर स्वस्थानअन्तर और परस्थानअन्तरके भेदसे दो प्रकारके हैं। उनमें से स्वस्थान गणकारकी कृष्टि अन्तर यह संज्ञा है और परस्थान गुणकारोंकी संग्रह कृष्टि अन्तर यह संशा है । इस प्रकार इस संज्ञाभेदका जब तक ज्ञान नहीं कराया जाता तब तक कृष्टि अन्तरोंके इस अल्पबहुत्वका कथन करनेपर सुखपूर्वक ज्ञान नहीं होता, इसलिए सर्वप्रथम उन दोनों संज्ञाओंमें क्या भेद ( अन्तर ) है इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं