Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसे ढोए विदियसमए किट्टीअप्पा बहुअपरूवणा
मैवं परूवेयव्यं । संपहि एत्तो उवरिमासु अपव्यकिट्टीसु विदियसंगह किट्टीए हेट्ठा निव्वत्तिज्जमाणिया अतरोवणिधाएं अनंतभागहीणं चेव पदेसणिक्खेवं कुणवि त्ति पटुप्पायनद्रुमुत्तरसुत्तं भणवि
* तैण परमणंतभागहीणं जाव अपुव्वाणं चरिमादोति ।
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§ ८५. किं कारणं ? एदम्मि अद्धाणे अनंतभागहाणि मोत्तूण पयारंतरासंभवादो । संपहि एत्थतणाणमपुण्व किट्टीणं चरिमादो पढमसमये णिव्वत्तिदाणं पुञ्चकिट्टीणं लोभविदियसंगहकिट्टीपडिबद्धाणं जहणियाए किट्टीए पदेसविण्णासो एदेण सरूवेण पयट्टवि त्ति पटुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* तदो पढमसमयणिव्वत्तिदाणं जहणियाए किट्टीए विसेसहीणमसंखेज दिभागेण ।
६८६. तत्थ पुण्वावट्टिदासंखेज्ज विभागमेत्तेण पुणो एगवग्गण विसेसमेत्तेंण च परिहीणो पदे णिसेगो एवम्मि संधिविसेसे होदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थ संगहो ।
* तेण परं विसेसहीणमणंतभागेण जाव विदियसंगह किट्टीए चरिमकिट्टि त्ति | ८७. सुगमं ।
* तदो जहा विदियसंगहकिट्टीए विधी तहा चैव तदियसंगह किट्टीए विधी च ।
६ ८८. जहा विaियसंगह किट्टीए आदिम्मि अध्वाणं जहण्ण किट्टीए एगवार मसंखेज्जभागुत्तरपदेसविण्णासो हो तत्तो परमणंतभागहाणीए अपुथ्व किट्टीओ समुल्लंघियूण पुष्व किट्टीणमा दिल्ल
इससे उपरि अपूर्व कृष्टियों में दूसरी संग्रह कृष्टि के नीचे निष्पन्न होनेवाली कृष्टियों में अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा अनन्तभागहीन ही प्रदेश निक्षेप करता है इस बातका कथन करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं
* उससे आगे दूसरी संग्रह कृष्टिसम्बन्धी निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टियोंको अन्तिम कृष्टि के प्राप्त होने तक अनन्तभागहीन प्रदेशपुंज दिया जाता है ।
$ ८५. क्योंकि इस स्थान में अनन्त भागहानिको छोड़कर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । अब यहाँकी अपूर्व कृष्टियों की अन्तिम कृष्टिसे प्रथम समय में निष्पन्न हुई लोभसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिसम्बन्धी पूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें प्रदेश निक्षेप इस रूपसे प्रवृत्त होता है इस बातका कथन करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं
* उससे प्रथम समय में निष्पन्न हुई संग्रह कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें असंख्यातवें भागहीन प्रवेशपुंज दिया जाता है ।
$ ८६. क्योंकि उसमें पूर्व के अवस्थित असंख्यातवें भागप्रमाण एक वर्गणा विशेषमात्र परिहीन प्रदेश निक्षेप इस सन्धिविशेष में होता है यह यहां इस सूत्रका समुच्चयार्थ है ।
* उससे आगे दूसरी संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टि तक अनन्तवें भागप्रमाण विशेष होन द्रव्य दिया जाता है ।
९ ८७. यह सूत्र सुगम है ।
* तदनन्तर जिस प्रकार दूसरी संग्रह कृष्टिकी विधि कही गयी है उसी प्रकार तीसरी संग्रह कृष्टिकी विधि जाननी चाहिए ।
$ ८८. जिस प्रकार दूसरी संग्रह कृष्टिके आदिमें अपूर्वं कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें एक बार असंख्यातवें भाग अधिक प्रदेश विन्यास होकर उससे आगे अनन्तभाग हानि द्वारा अपूर्वं कृष्टियों