Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 316
________________ खवगसेढीए माणपढमकिट्टीविसयकपरूवणा २८३ * संतकम्मं चत्तारि वस्साणि पुण्णाणि । ६७१२. एत्थ सतिभागवस्समेतदिविसंतपरिहाणोए पुव्वं व तेरासियकमेणाणयणं कादूण पयटिदिसंतपमाणसिद्धी परूवेयवा । एत्थ सेसकम्माणं दिदिबंध-टिदिसंतकम्मपमाणपरिक्खा सुगमा त्ति णाढत्ता। एवमेत्तिएण परूवगापबंधेण कोहवेदगद्धं समाणिय संपहि एतो से काले जहावसरपत्तं माणपढमसंगहकिट्टिमोकड्डियूण पढदिदिविण्णासमेदेण विहाणेण कादूण वेदेवि त्ति पदुप्पाएमाणो उरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ * से काले माणस्स पढमकिट्टिमोकड्डियूण पढमट्ठिदि करेदि । ६७१३. एत्थ कारगतदियसंगहकिट्टी चेव वेदगपढमसंगहकिट्टीभावेण गिट्टिा दटुव्वा । सेसं सुगमं । संपहि एदिस्से पढमट्टिदीए पमाणावहारण?मुत्तरसुत्तमाह * जा एत्थ सव्वमाणवेदगद्धा तिस्से वेदगद्धाए तिभागमेत्ता पढमहिदी । ६७१४. कोहकिट्टीवेदगद्धादो विसेसहीणा अंतोमुत्तमेत्ती। एत्थतणसम्वमाणवेदगडा होदि । पुणो एदिस्से तिभागमेती पढमसंगहकिट्टीवेदगद्धा होदि । तत्तो आवलियम्भहिया होदूण कोरमाणी एसा पढमट्टिदी. सव्वमाणवेदगडाए तिभागमेत्ती होवि ति णिहिट्ठा । जइ वि * उसी समय संज्वलनोंका स्थिति सत्कर्म पूरा चार वर्षप्रमाण होता है। $७१२ यहांपर तृतीय भाग अधिक वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्मकी हानि होनेपर पहिलेके समान राशिक क्रमसे लाकर प्रकृतस्थितिसत्कर्मके प्रमाणको सिद्ध प्ररूपित कर लेनी चाहिए। यहांपर शेष कर्मों के स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्मके प्रमाणको परोक्षा सगम है. इसलिए उनका आरम्भ नहीं किया है। इस प्रकार इतने प्ररूपणासम्बन्धी प्रबन्ध द्वारा क्रोधके वेदक कालको समाप्त करके अब इसके बाद तदनन्तर समयमें यथावसर प्राप्त मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके और प्रथम स्थितिकी रचना इस विधिसे करके वेदन करता है इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धका आरम्भ करते हैं * तदनन्तर समयमें मानको प्रथम कृष्टिका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है। ६७१३. यहाँपर कारककी तीसरी संग्रह कृष्टि ही वेदककी प्रथम संग्रहकृष्टिरूपसे निर्दिष्ट की गयी है। शेष कथन सुगम है। अब इस प्रथम स्थितिके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं के यहांपर मानवेदकका जो सम्पूर्ण काल है उस वेदककालके तृतीय भागप्रमाण प्रथम स्थिति होती है। ६७१४. क्रोधके वेदक कालसे वह प्रथम स्थितिविशेष हीन होती है। यहाँपर मानका सम्पूर्ण वेदककाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । पुनः इसका तृतीय भागप्रमाण प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदककाल होता है। इसलिए एक आवलिसे अधिक होकर को जानेवाली यह प्रथम स्थिति सम्पूर्ण मान १.ता. प्रती किटोवेदगभावेण इति पाठः ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390