Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 355
________________ ३२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६८०६ अंतरद्धाणस्स संखेज्जदिभागे चेव पयदगुणसेढीसीसगे संजादे तत्तो अणंतरोवरिमा जा अणंतरटिदी तत्थ गुणसेढिसोसये णिसित्तपदेसग्गादो असंखेज्जगुणं पदेसग्गं णिसिंचदि त्ति भणिदं होदि । ण चेदस्स दव्वस्स गुणसेढिसीसयदव्वादो असंखेज्जगुणत्तमसिद्धं, ओड्डिदसयलदव्वस्सासंखेज्जेसु भागेसु तप्पाओग्गसंखेज्जरवेहि खंडिदेसु तत्थेयखंडं विदिदिदीए णिवददि त्ति पुध टुविय तत्थतणसंखेज्जे भागे घेतूण अंतरट्टिदोसु समयाविरोहेण णिसिंचमाणस्स परिप्फुडमेव पयददध्वस्स गुणसेढिसोसयदव्वादो असंखेज्जगुणत्तसिद्धिदसणादो। एत्तो परमंतराहदीसु अणंतराणंतरादो एगेगगोवुच्छविसेसहाणीए पदेसविण्णासं कुणदि जाव अंतरचरिमदिदि ति इममत्थविसेसं पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * तत्तो बिसेसहीणं ताव जाव पुव्वसमये अंतरमासी तस्स अंतरस्स चरिमादो अंतरद्विदिदो त्ति। 5८०७. कुदो ? संतरदिदीस ओकड्डिदसयलदव्वस्स संखेज्जे भागे घेतूण सत्थाणे एयगोवुच्छायारेण णिसिंचमाणस्स पयारंतरासंभवादो। तम्हा एवंविहेण पदेसविण्णासेण अंतरमावूरेवि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसम्भावो। एवमंतरदिदीस पदेसविण्णासं कादूण पुणो एत्तो परं विदियदिदीए जा आदिट्टिदो तत्थ केरिसं पदेसविण्णासं कुणदि त्ति आसंकाए णिरारेगोकरणट्ठमुत्तरसुत्तमाह ६८०६. अन्तरके आयामके संख्यातवें भागमें ही प्रकृत गुणश्रेणिशोर्षके हो जानेपर उससे अनन्तर जो उपरिम अनन्तर स्थिति है वहां गुणश्रेणिशीर्षमें निक्षिप्त किये गये प्रशशजसे असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजका सिंचन करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। और यह द्रव्य गुणश्रेणिशीर्षके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है, यह बात असिद्ध नहीं है, क्योंकि अपकर्षित किये गये समस्त द्रव्यके असंख्यात भागोंमें तत्प्रायोग्य असंख्यातरूपोंके द्वारा भाजित करनेपर उनमें से एक भागप्रमाण द्रव्य दूसरी स्थितिमें पतित होता है इस प्रकार इस द्रव्यको पृथक् स्थापित करके वहांसम्बन्धी संख्यात बहुभाग द्रव्यको ग्रहण करके अन्तरस्थितियोंमें समयके अविरोधपूर्वक सिंचन करनेवाले क्षपक जीवके स्पष्ट हो प्रकत व्यकी गणश्रेणिशीर्षके द्रव्यसे असंख्यातगणपनेकी सिद्धि देखी जाती है। इससे आगे अन्तरसम्बन्धो स्थितियोंमें अनन्तर-अनन्तर क्रमसे एक-एक गोपुच्छा विशेषकी हानि द्वारा अन्तरकी अन्तिम स्थितिके प्राप्त होनेतक प्रदेशोंकी रचना करता है, इस प्रकार इस अर्थ विशेषका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * उसके आगे, पूर्व समयमें जो अन्तर था उस अन्तरको अन्तिम अन्तरस्थितिके प्राप्त होनेतक एक-एक विशेषहीन द्रव्यको देता है। ६८०७. क्योंकि अन्तरसम्बन्धी स्थितियोंमें अपकर्षित हुए समस्त द्रव्यके संख्यात बहुभागको ग्रहण करके स्वस्थानमें एक गोपुच्छाकाररूपसे सिंचन करनेवाले क्षपक जीवके अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। इसलिए इस प्रकारके प्रदेशविन्यासके द्वारा अन्तरको भरता है यह यहाँपर इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। इस प्रकार अन्तरसम्बन्धो स्थितियोंमें प्रदेशविन्यास करके पुनः इससे आगे द्वितीय स्थिति में जो आदि स्थिति है उसमें किस प्रकारके प्रदेशविन्यासको करता है ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं

Loading...

Page Navigation
1 ... 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390