Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 359
________________ ३२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे समयं पडि ओक डयूण संछ्न्भमाणदव्वं विदियट्ठिदिसयल पदे सग्गस्सा संखेज्ज दिभागमेत्तं चैव होदि, भागहाण खंडिदेयखंडपमाणत्तादो । तेण गुणसेढि मोत्तूण उवरिमअंतर द्विदोसु पिसित्त पदेपिडमेयगो+छासरूवं होदूण तत्थावट्ठिदं दट्ठध्वं । विदियट्ठिदीए वि पढमणिसेगप्पहुडि वरिमसम्वद्विदी पदेसग्गमेयगोवुच्छायारेण अंतरच रिमद्विवीए णि'सत्तदव्वादो असंखेज्जगुणं होण चिट्ठदि । कारणं - जाव दुचरिमफाली णिवददि ताव समयं पडि ओक डियूग अंतर दी निसिचमाणपदेपिडं विदियट्ठि दिसयल पदे सग्गस्सा संखेज्जदिभागमेत्तं चेत्र होदि । होतं पि तक्कालोक दिसपल दव्वस्सासंखेज्जदिभागमेत्तं संखेज्जदिभागमेत्तं वा होदि । तेण कारणेण अंतरद्विदी विदिद्विदोए च भिण्णगोवुच्छाओ तत्थ जादाओ । ८१४. संपहि पढमट्ठिदिखंडयचरिमफालीए णिवदिदाए दोण्हमेंयगोवुच्छासेढी जायदि त्ति पढमट्ठिदिखंडयचरिमफालीदव्वस्त संखेज्जदिभागमेत्तो पदेसपिंडों अंतरष्ट्ठिदीस तक्काले णिवददित्ति घेत्तव्वं । पुणो तिस्से चरिमफालीए पदेसपिंडस्सा संखेज्जा भागा पढमद्विविखंड• यायामेणूण विदियट्ठिदीए अवयवट्ठदोसु पढमट्ठिदिखंडयादो संखेज्जगुणासु णिवदति । तक्काले चरिमफालीए एगेगट्ठिदिपदेसग्गस्स संखेज्जदिभागमेत्तो पदेर्सापडो एक्केवक द्विदिविसे सम्मि णिवददि । अंतरर्राद्वदी पुण पादेककमेत्तो संखेज्जगुणमेत्तो पदेस पडो णिवददि, अण्णा दोहमेय फालिके प्राप्त होनेतक प्रत्येक समय में अपकर्षित होकर संक्रमित हुआ जो द्रव्य पतित होता है। वह द्वितीय स्थितिसम्बन्धी समस्त प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है, क्योंकि वह अपकर्षण भागहारके द्वारा भाजित करनेपर एक भाग प्रमाण है । इस कारण गुणश्रेणिको छोड़कर उपरिम अनन्तर स्थितियों में निक्षिप्त हुआ प्रदेशपिण्ड एक गोपुच्छास्वरूप होकर वहाँ अवस्थित जानना चाहिए। द्वितीय स्थिति में भी प्रथम निषेकसे लेकर उपरिम सब स्थितियों में प्रदेश पुंज एक गोपुच्छाकाररूपसे अन्तरसम्बन्धी अन्तिम स्थितिमें निक्षिप्त हुए द्रव्यसे असंख्यातगुणा होकर अवस्थित होता है। इसका कारण - जबतक द्विचरम फालिका पतन होता है तबतक प्रत्येक समय में अपकर्षित होकर अन्तरस्थितियों में सिंचित होनेवाला प्रदेशपिण्ड द्वितीय स्थितिसम्बन्धी समस्त प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है । ऐसा होता हुआ भी तत्काल अपकर्षित समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अथवा संख्यातवें भागप्रमाण होता है । इस कारण अन्तर-स्थितियोंमें और द्वितीय स्थितिमें वहां अलग-अलग गोपुच्छायें हो जाती हैं । ६८१४. अब प्रथम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिका पतन होनेपर दोनों की एक गोपुच्छा श्रेणि हो जाती है, इसलिए प्रथम स्थितिकाण्डकसम्बन्धी अन्तिम फालिके द्रव्यका संख्यातवें भागप्रमाण प्रदेशपिण्ड अन्तरस्थितियों में तत्काल पतित होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । पुन: उस अन्तिम फालिके प्रदेशपिण्डका असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्य प्रथम स्थितिकाण्डक आयामसे कम द्वितीय स्थितिको प्रथम स्थितिकाण्डकसे संख्यातगुणी अवयव स्थितियों में पतित होता है । उस समय अन्तिम फालिकी एक-एक स्थितिसम्बन्धो प्रदेशपुंजका संख्यातवाँ भागप्रमाण प्रदेश पिण्ड एक-एक स्थितिविशेष में पतित होता है । परन्तु अन्तर स्थितियों में से प्रत्येक स्थिति में इससे संख्यातगुणा प्रदेशपिण्ड पतित होता है, अन्यथा दोनों की एक गोपुच्छारूपसे उत्पत्ति नहीं १. आ० प्रती तत्थावट्ठिददव्वं इति पाठः ।

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