Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 326
________________ खवंगसेढीए लोभवेदगपरूवणा २९३ * तेणेव विहिणा संपत्तो लोमस्स पढमकिट्टिं वेदयमाणस्स पढमट्ठिदीए समयाहियावलिया सेसा ति । ६७३०. तेणेव पुत्त्रेण विहिणा एविस्से संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीणमसंखेज्जे भागे वेदेमाणो उविष्णाहितो विसेसहीणाओ बंषमाणो समये समये बंधोदयजहण्णुवकस्सणिव्वग्गणाओ च तहा चैव कुणमाणो संताणुभागस्स अणुसमयोवट्टणाघादं च तहा चेवाणुपालेमाणो अपुष्याओ च किट्टीओ बज्झमाणसंकामिज्जमाणपवेसग्ग संबंधिणीओ किट्टीअंतरेसु संगहकिट्टीणं च हेट्ठा जहासंभवं पुण्यभंगेणेव निव्वत्तंमाणो एसो अप्पणो वेदिज्जमाणपढमट्ठिदीए तमुद्देसं संपत्तो जम्नि उद्देसे वट्टमाणस्स पिढदीए वे दिवसेसा समयाहियावलिया सेसा त्ति एसो एक्स्स सुत्तस्स समुदायत्यो । संपहि एवम्मि संधिविसेसे वट्टमाणस्स सर्व्वेसि कम्माणं ठिदिबंधादिपमाणावहारणट्ठमुवरिमं सुत्तपधमाह * ताधे लोभसंजणस्स द्विदिबंधो अंतोमुहुतं । ६७३१. पुव्विल्लमाया वेदगचरिम संधिविसये द्विदिबंधादो जहाकमं परिहाइदूण अंतोमुहुत्तपमाणो लोभसंजलणस्स द्विदिबंधो एवम्मि विसये संवृत्तोत्ति भणिदं होदि । * द्विदिसंतकम्मं पि अंतोमुहुत्तं । ६७३२. पुब्विल्लसंधिविसये संपुष्णवत्समेत्तं लोभसंजलर्णाट्ठदिसंतकम्मं तत्तो कमेण परिहाइ * उसी विधिसे लोभसंज्वलनको प्रथम कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपक जीवके जब प्रथम स्थिति में एक समय अधिक एक आवल काल शेष रहता है । $ ७३०. उसी पूर्वोक्त विधिसे इस संग्रहकृष्टिकी अंतरकृष्टियों के असंख्यात बहुभागका वेदन करनेवाला और उदोर्ण अंतरकृष्टियोंसे विशेष हीन अंतरकृष्टियोंको बांधनेवाला तथा समयसमय में बंध और उदयरूप जघन्य और उत्कृष्ट निर्वगंणाओंको उसी प्रकार करनेवाला ओर सत्कर्मो के अनुभागका अनुसमय अपवर्तना घातको उसी प्रकार पालन करनेवाला तथा बध्यमान और संक्रम्यमान प्रदेशपुंजसम्बन्धी अपूर्वं कृष्टियोंको कृष्टि- अन्तरालोंमे तथा संग्रहकृष्टियों के नीचे यथासम्भव पूर्व विधिके अनुसार ही रखता हुआ यह क्षपक जीव अपनी वेदो जानेवाली प्रथम स्थितिके उस स्थानको प्राप्त होता है जिस स्थानपर विद्यमान उसके विवक्षित प्रथम स्थितिके वेदी जानेसे शेष एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थिति शेष रहती है यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। अब इस सन्धिविशेषमें विद्यमान इस क्षपक जायके सब कर्मों के स्थितिबन्धादि प्रमाणोंका अवधारण करनेके लिए उपरिम सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * उस समय लोभ संज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूतं प्रमाण होता है । $ ७३१. पूर्वोक्त मायावेदकको अन्तिम सन्धिविषयक स्थितिबन्धसे यथाक्रम घटकर इस स्थानपर लोभ संज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाण हो गया है यह उक कथनका तात्पर्य है । * तथा उसका स्थितिसत्कर्म भी अन्त मुंहर्तप्रमाण होता है । ६७३२. पूर्वोक सन्धिमें लोभ संज्वलनका स्थितिसत्कर्म सम्पूर्ण वर्षप्रमाण रहा था ।

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