Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 345
________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे पढमसंगह किट्टीए कोहतदियसंगह किट्टीदो अघापवत्तसंकमेणेव संकममाणपदेसग्गं विसेसाहियमिदि भणिण पुणो एदस्सुवरि माणस्स पढमसंगहकिट्टीदो मायाए पढमसंगह किट्टीए अधापवत्तसंक्रमेण संकममाणयं पदेसग्गं विसेसाहियमिदि णिद्दिट्ठ । एदं च ण समंजसं थोवपदेसपिंडादो बहुदरं संकामेदि बहुगादो च योवयरं संकामेदित्ति एवंविहत्यस्स जुतिविरुद्धत्तादोत्ति ? ३१२ एत्थ परिहारो वुच्चदे - एसो पदेससंकमो कत्थ वि आधारपधाणो, कत्थ वि आधेयपहाणो, कत्थ वि तदुभयपहाणो होदूण पट्टदे । एत्थ वुण आहारपहाणत्तविवक्खाए पडिग्गनहद व्वाणुसारेण संकमपवृत्ती जेणावलंबिदो तेण कोहर्तादियसंगह किट्टीपदेससंकमस्स पडिग्गहभूदमाणपढमसंगहकिट्टिपदेसग्गादो माणपढमसंग हकिट्टिपदेस संक मस्स पडिग्गहभावेण द्विदमायापढमसंगह किट्टीपदेसग्गस्स विसेसाहियत्तादो तदाधारभूदपदेससंकमो विसेसाहियो जादो । विसेसपमाणमेत्थ डिग्गदव्वाणुसारेण आवलियाए असंखेज्जदिभागपडिभागिय मदि गर्हयध्वं । *माणस्स विदियादो संगहकिट्टीदो मायाए पढमसंगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । थोड़ा कहा गया है । पुनः उसके बाद मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें क्रोधकी तीसरी संग्रह कृष्टिअधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा संक्रमित होनेवाला प्रदेशपुंज विशेष अधिक है ऐसा कहकर पुन: इसके ऊपर मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिले मायाकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें अधःप्रवृत्त संक्रपके द्वारा संक्रमित होनेवाला प्रदेशपुंज विशेष अधिक है' ऐसा निर्देश किया गया है । परन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'स्तोक प्रदेश पिण्ड बहुत अधिक प्रदेशपुंजको संक्रमित करता है और बहुत प्रदेश पुंजसे स्तीकतर प्रदेशपुंजको संक्रमित करता है 'इस प्रकारका अर्थ युक्तिविरुद्ध है' । समाधान - अब इस शंकाका परिहार करते हैं - यह प्रदेशसंक्रम कहींपर आधारप्रधान, कहीं पर आधेयप्रधान और कहींपर सदुभयप्रधान होकर प्रवृत्त होता है, परन्तु यहाँपर आधारप्रधानकी विवक्षा में प्रतिग्रह द्रव्यके अनुसार यतः संक्रमकी प्रवृत्तिका अवलम्ब लिया गया है, इस कारण क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टिके प्रदेशसंक्रमका प्रतिग्रहभूत मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिके प्रदेशपुंज - से तथा मानकी प्रथम संग्रहकृष्टि के प्रदेशसंक्रमका प्रतिग्रहरूपसे स्थित मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टके प्रदेशपुंजके विशेष अधिक होनेसे उसका आधारभूत प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक हो जाता है । यहाँपर विशेषका प्रमाण प्रतिग्रह द्रव्यके अनुसार आवलिके असंख्यातवें भागका प्रतिभागी है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । विशेषार्थ —- कृष्टिकरणकालके प्रसंगसे जो तीसरी मूलगाथा १६९ है उसके तीन अर्थोंमें से प्रथम अर्थके व्याख्यानके प्रसंगसे भाष्यगाथा ( ११७ - १७० ) में १२ संग्रहकृष्टियों के प्रदेशसंक्रम अल्पबहुत्वका निर्देश करते हुए वहीं जो क्रम स्वीकार किया गया है उससे यहाँ स्वीकार किये गये प्रदेशक्रम में जा अन्तर है उसको लक्ष्य में रखकर जो समाधान किया गया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि यहां न तो आधेयप्रधान संक्रम विवक्षित है और न ही तदुभयप्रधान संक्रमविवक्षित है । किन्तु आधारप्रधान प्रदेशसंक्रम यहाँपर विवक्षित है। इसी कारण पूर्व कथनसे इस कथनमें थोड़ा अन्तर हो गया है । * मानकी दूसरी संग्रहकृष्टिसे मायाको प्रथम संग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक प्रदेशपुंजको संक्रमित करता है ।

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