Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 347
________________ ३१४ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे होदध्वं अधापवत्तभागहारादो ओकड्डुक्कडुणभागहारस्स सव्वत्थासंखेज्जगुणहीण त्तोवएसादो त्ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे - सच्च मेदं भागहारविसेसे जोइज्जमाणे तहा चेव होदिति । किंतु भागहारविसेसो एत्थ णत्थि, परिणाममाहप्पमस्सियूण' अधापवत्तभागहारस्स, ओकडुणभागहाराणुसारेणेव एवम्मि विसये पवृत्तिणियमावलंबणा दो। ण चेदमसिद्धं, एदम्हादो चेव सुत्तादो पयवस्थ सिद्धिसमवलंबणादो | ण च सव्वत्थेव ओकड्डुक्कडुणभागहारादो अधापवत्तभागहा रस्सा संखेज्जगुणत्तनियमो अत्थि, अववादविसय मेदं मोत्तूणण्णत्थ तस्स तहाभावान्भुवगमादो । तम्हा एदम्मि विसये अधापवत्तसंकमादो ओकडुणसंकमस्स भागहारविसेसो णत्थि त्ति सिद्धमेदस्स दव्वविसेसमस्सियूण विसेसाहियत्तं । * लोभस्स चेव पढमसंगहकिट्टीदो तस्स चैव तदियसंगह किट्टीए संकमदि पदेसगं विसेसाहियं । $ ७८६. एसो वि ओकडुणसंकमो चेव । किंतु पुविल्लप डिग्गहादो संपहियप डिग्गहो बिसेसाहिलो, तेण तव्विसयसंकमो वि विसेसा हिमो जादो । * कोहस्स पढमसंगह किट्टीदो माणस्स पढमसंगह किट्टीए संकमदि पदेसग्गं संखेज्जगुणं । ६७८७ लोभपढ म संगह किट्टीपदेस संतकम्मादो कोहपढम संगहकिट्टीए पदेस संतकम्मं तेरसगुणं होइ, तेण तत्तो संका मिज्जमाणपदेसग्गं पि संखेज्जगुणं चैव जादं । सेसं सुगमं । समाधान - यहां पर उक्त शंकाका परिहार करते हैं - यह सच है, भागहार विशेषके देखनेपर उसी प्रकार है । किन्तु यहाँपर भागहार विशेष नहीं है, क्योंकि परिणामके माहात्म्यका आश्रय करके अधःप्रवृत्त भागहारको अपकर्षण- उत्कर्षण भागहार के अनुसार हो इस विषय में प्रवृत्तिके नियमका अवलम्बन लिया गया है । और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि इसी सूत्रसे प्रकृत अर्थ की सिद्धिका अवलम्बन हो जाता है परन्तु सर्वत्र ही अपकर्षण- उत्कर्षण भागहार से अधःप्रवृत्त भागहारके असंख्यातगुणेपनेका नियम नहीं है, क्योंकि इस अपवाद के विषयको छोड़कर अन्यत्र उसे उसी प्रकारसे स्वीकार किया गया है। इसलिए इस विषय में अधःप्रवृत्त संक्रमसे अपकर्षण संक्रमकी अपेक्षा भागहार विशेष नहीं है । इसलिए इसके द्रव्यविशेषका आश्रय करके विशेषाधिकपना सिद्ध हो जाता है । * लोभकी। प्रथम संग्रहकृष्टिसे उसीकी तीसरी संग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक प्रदेशपुंजको संक्रमित करता है । ६ ७८६. यह भी अपकर्षण संक्रम ही है। किन्तु पहिले के प्रतिग्रहसे साम्प्रतिक प्रतिग्रह विशेष अधिक है । इसलिए उसको विषय करनेवाला संक्रम भी विशेष अधिक हो जाता है । * क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिसे मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें संख्यातगुणे प्रदेश पुंजको संक्रम करता है । ६७८७. लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिके प्रदेश सत्कर्मसे क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें प्रदेश सत्कर्म तेरहगुणा है, इसलिए उससे संक्रामत होनेवाला प्रदेशपुंज भी संख्यातगुणा ही हो जाता है । शेष कथन सुगम है ।

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