Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 320
________________ खवगसेढोए माणपढमकिट्टीविसयकपरूवणा २८७ * किट्टीविणासणे बज्झमाणयेण संकामिज्जमाणयेण च पदेसग्गेण अपुव्वाणं किट्टीणं करणे किट्टीणं बंधोदयणिव्वग्गणकरणे एदेसु करणेसु त्थि जाणत्तं, अण्णेसु च अभणिदेसु । ६७२०. 'किट्टोविणासणे णस्थि णाणतं' एवं भणिदे समयं पडि णिरुद्धसंगहकिट्टीए अग्गग्गादो असंखेज्जदिभागं खंडेदि त्ति तेण तत्थ विसेसो गस्थि त्ति भणिदं होदि । एवं सुत्ताणु. सारेण णेदवं । णवरि 'अण्णेसु च अभणिदेसु' एवं वुत्ते जाण अण्णाणि अभणिदाणि करणाणि तेसु वि करणेसु पत्थि विसेसो, कोहपढमसंगहकिट्टीए बंधसंतकम्मपदेसेहिं णिसेगादिपरूवणाओ जाओ भणिदाओ तासि पि परूवणे एत्थ कीरमाणे सो चेव भंगो, ण तत्थ को वि विसेससंभवो त्ति भणिदं होदि । एवमेदेण विहाणेण माणपढमसंगहकिट्टि वेदेमाणस्स कमेण पढमदिदीए ज्झीयमाणाए समयाहियावलियमेत्तपढमट्टिदि घरेदूणावट्टिदस्स तक्कालभाविओ जो परूवणाविसेसो तमुवरिमसुत्ताणुसारेण वत्तइस्सामो-- * एदेण कमेण माणपढमकिट्टि वेदयमाणस्स जो पढमट्ठिी तिस्से पढमद्विदीए जाधे समयाहियावलियसेसा ताधे तिण्हं संजलणाणं ठिदिबंधो मासो वीसं च दिवसा अंतोमुहुत्तूणा । 5७२१. पुव्वुत्तकोहवेदगचरिमसमयविसयट्टिदिबंधो दोमासमेत्तो जादो। तत्तो जहाकम परिहाइदूणेण्डिं संजलणाणं ठिदिबंधो अंतोमहत्तूणवीसदिवसाहियमासमेत्तो माणपढमसंगहकिट्टी. * कृष्टियोंके विनाश करनेमें तथा बध्यमान और संक्रमाण प्रदेशपुंजरूपसे अपूर्व कृष्टियोंके करने में तथा कृष्टियोंके बन्ध और उदयरूप निवर्गणाकरणमें इन करणों में कोई भेद नहीं है तथा जो करण यहाँ नहीं कहे गये हैं उन करणोंमें भो कोई भेद नहीं है। ६७२०. 'कृष्टियों के विनाश करने में कोई भेद नहीं है' ऐसा कहनेपर प्रत्येक समय में विवक्षित संग्रहकृष्टिके अग्रभागसे असंख्यातवें भागका खण्डन करता है इस रूपसे उसमें कोई भेद नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार सूत्रके अनुसार कथन कर लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि 'अण्णेसु च अभणिदेसु' ऐसा कहनेपर जो अन्य करण नहीं कहे गये हैं, उन करणोंमें भी कोई विशेष नहीं है, क्योंकि क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिके बन्ध और सत्कर्मप्रदेशोंको अपेक्षा जो निषेकादि प्ररूपणाएं कह आये हैं उनको भी प्ररूपणा यहाँपर करनेपर वह उसी प्रकार होती है उसमें कोई विशेष सम्भव नहीं है यह सूत्रका तात्पर्य है। इस विधिसे भावकी प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदन करनेवाले जीवको क्रमसे प्रथम स्थितिके क्षीण होनेपर तथा एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण प्रयम स्थितिको रखकर अवस्थित हुए उसके उस काल में जो प्ररूपणाभेद होता है उसे उपरिम सूत्रके अनुमार बतलावेंगे * इस क्रमसे मानको प्रथम कृष्टिका वेदन करते हुए जो प्रथम स्थिति होती है उस प्रथम स्थितिका जब एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण काल शेष रहता है तब इन संज्वलनोंका स्थितिबन्ध एक माह और अन्तर्मुहूर्त कम बीस दिनप्रमाण होता है। ७२१. पूर्वोक्त क्रोधकषायका वेदन करते हुए अन्तिम समयमें जो स्थितिबन्ध दो माहप्रमाण था वह उससे क्रमसे घटकर इस समय संज्वलनोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम बीस दिन

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