Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसेढीए विदियमूलगाहाए विदियभासगाहा
होदि त्ति पदुप्पायण?मेदं गाहासुत्तमोइग्णनिदि। संपाहि एदस्स किचि अवयवत्यपलवणं कस्सामो'सव्वाओ किट्टीओ विदिय०' एवं भणिदे सव्वाओ सगहट्टिोओ तदवववकिट्टीओ च विदियट्टिदोए सम्वत्थ चेव हांति, ण तत्य एकिकस्से वि किट्टीए पडिसेहो अत्थि ति भगिदं होदि । 'जं किट्टि वेवयदे०' जमेव खलु संगहकिट्टि वेदेदि, तिस्से चेव अंसा भागो पढनटिसीए दट्टयो, अवेदिज्ज. माणकिट्टीणं पढमट्टिदीए संभवाभावादो ति वुत्तं होइ। वेदिज्जमाणसंगहकिट्टोए वि अंसो पढमट्टिदाए होंतो उदयवज्जासु सवासु टिदोसु अविसेसेण सम्वकिट्टोसरूवा होदूण लब्भदे । उपर्याटुदीए पुण वेदिज्जमाणकिट्टोए असंखेज्जा भागा चेव होंति त्ति एसो विसेसो एत्थेव सुत्ते अंतन्भूवो बटुवो।
६१८२. एवं विहो च एदिस्से गाहाए अत्थो पढमभासगाहाविहासावसरे चेव विहासिदों, तको ण पुणो परवेयव्वा त्ति जाणावणमिदमाह
* एदिस्से विहासा वुत्ता चेव पढमभासगाहाए ।
६१८३. पढमभासगाहाविहासावसरे चेव एदेसि विहासा परूविवा, तत्थ 'किट्टी च टिदिविसेसेस असंखेज्जेसु णियमसा होद' ति एदेणेवत्थसंबंधेग पढमविदियट्टिदीस किट्टीणमवटाणस्स
और द्वितीय स्थितिके भेदको विवक्षा करके उन अवयवरूप स्थितियोंमें कृष्टियोंका अवस्थान इस रूपसे है इस बातका कथन करनेके लिए यह गाथासूत्र अवतीर्ण हुआ है। अब इस भाष्यगाथाके अवयवोंके अर्थको किंचित् प्ररूपणा करेंगे-'सव्वाओ किट्टोमो विदिय०' ऐसा कहनेपर सब संग्रह कृष्टियां और उनको अवयव कृष्टियां द्वितीय स्थितिको सभी स्थितियों में पायो जाती हैं, उनमें एक भी कृष्टिके होनेका निषेध नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। किन्तु 'जं किट्टि वेदयदे०' अर्थात् नियमसे जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उसीका कुछ भाग प्रथम स्थितिमें जानना चाहिए, क्योंकि अवेद्यमान कृष्टियोंका प्रथम स्थितिमें होना सम्भव नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। वेद्यमान संग्रह कृष्टिका भी कुछ अंश प्रथम स्थितिमें होता हुआ उदयरहित सब स्थितियोंमें अविशेषरूपसे समस्त कृष्टिस्वरूप होकर प्राप्त होता है। परन्तु उदयस्थिति में वेद्यमान कृष्टिका असंख्यात बहुभाग ही होता है इस प्रकार इतना विशेष इसी सूत्र में अन्तर्भूत जानना चाहिए।
विशेषार्थ-जिस समय इस जीवके जिस संग्रह कृष्टिका उदय होता है उस समय उसका असंख्यात बहुभाग ही उदयरूपसे परिणत होता है, शेष एक भाग उस समय प्रथम स्थितिमें होता हुआ भी उदयरूपसे परिणत न होकर उदय रहित सब स्थितियों में सर्व कृष्टिरूपसे अवस्थित रहता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ?
१८२. इस गाथाका इस प्रकारके अर्थका प्रथम भाष्य गाथाको विभाषाके समय हो व्याख्यान कर आये है, इसलिए उसका पुनः कथन नहीं करना चाहिए इस बातका ज्ञान कराने के लिए इस सूत्रको कहते हैं
* इस भाष्यगाथाको विभाषा प्रथम भाष्यगाथाको विभाषा करते समय ही कही गयी है।
६१८३. प्रयम भाष्यगाथाको विभाषाके समय ही इसको विभाषा कहो गयो है, क्योंकि वहाँपर 'किट्टी च द्विदिविसे सेसु असंखेज्जेसु णियमसा होदि' अर्थात् असंख्यात स्थितिविशेषोंमें कृष्टि नियमसे रहती है इस प्रकार इस अर्थक सम्बन्धसे प्रथम और द्वितीय स्थितियोंमें कुष्टियोंके