Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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अवगसेढीए तदियमूगाहा संपहि तासिं चेव पदेसरगेणाणुभागग्गेण कालविसेसेण च होणाहियभावगवेसणट्टमेसा तवियमूलगाहा समोइण्णा । तं जहा-'किट्टी च पदेसग्गेण०' एवं भणिदे कदमा किट्टी कम्हादो किट्टीदो पदेसग्गेण अहिया हीणा समा वा होदि ? का वा किट्टी कम्हादो किट्टीवो अणुभागग्गेण अहिया हीणा समा वा होवि, कालविसेसेण वा णिहालिज्जमाणा कदमा किट्टी कम्हादो किट्टीदो अहिया हीणा समा वा होदि त्ति पादेक्कमभिसंबंध कादूण सत्तत्यसमत्थणा एत्य कायम्वा । तदो तिणि पुच्छाओ तिसु अत्यविसेसेस पडिबद्धाओ एत्थ णिहिट्ठाओ बटुवाओ। एवासि चेव पुच्छाणं पुणो वि विसेसियूण पहवणटुं 'गुणेण किं वा विसेसेणेत्ति' भणिदं । एत्थ 'कालेणेत्ति' वुत्ते बारसण्हं संगहकिट्टीणं वेदगकालो घेत्तव्वों, कोह-माण-माया-लोभोदएहि चडिवाणं पढमसमयकिट्टोवेवगाणं मोहणीयस्स द्विविकालो तत्थतणपदेसग्गविसयजवमझाविपरूवणा च एत्येवंतम्भूदा बटुव्वा । एवमेवासि तिण्हं पुच्छाणं णिण्णयकरण?मेसा तषियमूलगाहा समोइण्णा ति एसो एत्य सुत्तत्थसंगहो। संपहि एवं विहत्यपडिबद्धाए एविस्से सुत्तगाहाए विहासणं कुणमाणो चुणिसुत्तयारो परिमं पबंधमाह
* एदिस्से तिणि अत्था ।
६१८७. एदिस्से मूलगाहाए तिणि अत्यविसेसा णिबद्धा ति वुत्त होई। संपहि के ते तिणि अत्था, कम्हि वा अत्थे केत्तियाओ भासगाहाओ पडिबडायो त्ति इममत्थविसेसंपदुप्पाइयदुकामो उवरिमं पबंधमाढवेदि
* किट्टी च पदेसग्गेणेत्ति पढमो अत्यो । एदम्मि पंच मासगाहाओ ।
अवस्थान विशेषका कथन करके अब उन्हींके प्रदेशपुंज, अनुभागपुंजकी अपेक्षा और काल विशेषकी अपेक्षा होनाधिकभावको गवेषणा करने के लिए यह तीसरी मूल गाथा अवतीर्ण हुई है।
वह जैसे-'किट्टी च पदेसग्गेण' ऐसा कहनेपर कौन कृष्टि किस कृष्टिसे प्रदेशपंजको अपेक्षा अधिक, हीन या समान होती है । अथवा कोन कृष्टि किस कृष्टिसे अनुभागसमूहकी अपेक्षा अधिक, होन या समान होती है। अथवा कालविशेषकी अपेक्षा देखी गयो कोन कृष्टि किस कृष्टिसे अधिक, होन या समान होती है। इस प्रकार प्रत्येकके साथ सम्बन्ध करके यहाँपर सूत्रार्थका समर्थन करना चाहिए । इसलिए तीन पृच्छाएँ इस मूल सूत्रगाथामें तीन अर्थविशेषोंमें प्रतिबद्ध निदिष्ट जाननी चाहिए। अतः इन्हीं पृच्छाओंका फिर भी विशेषकर कथन करनेके लिए 'गुणेण किं वा विसेसेण' यह वचन कहा है। यहाँपर 'कालेण' ऐसा कहने पर बारहों संग्रह कृष्टियोंका वेदककाल ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि क्रोध, मान, माया ओर लोभके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़कर कृष्टियोंका वेदन करनेवाले जीवोंका प्रथम समयमें मोहनीय कर्मका स्थितिकाल और वहाँ सम्बन्धी प्रदेशपंजविषयक यवमध्य आदिको प्ररूपणा इसीमें अन्तर्भूत जाननी चाहिए । इस प्रकार इन तीनों पच्छाओंका निर्णय करनेके लिए तीसरी मूलगाथा अवतीर्ण हुई है इस प्रकार यह यहाँपर सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। अब इस प्रकारके अर्थों में प्रतिबद्ध इस सूत्रगाथाको विभाषा करते हुए चूर्णिसूत्रकार उपरिम प्रबन्धको कहते हैं
* इस सूत्रगाथाके तीन अर्थ हैं।
६१८७. इस मूल गाथामें तीन अर्थविशेष निबद्ध हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब वे तोन अर्थ कौन हैं और कौन अर्थमें कितनी भाष्यगाथाएँ प्रतिबद्ध हैं इस प्रकार इस अर्थविशेष का कथन करनेकी इच्छासे आगेके प्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* 'किट्टी व पदेसग्गेण' अर्थात् कौन कृष्टि किस कृष्टिसे प्रवेशपुंजको अपेक्षा अधिक, होन या समान है यह प्रथम अर्थ है। इस अर्थ में पांच गाथाएं निबद्ध हैं।