Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसे ढोए चउत्थमूलगाहाए पढमभासगाहा
६ ३११. 'कवीस किट्टीसु च द्विदीस' एसो गाहासुत्तस्स चरिमावयवो गदियादिसंचिदाणं पुवबद्धाणं भयणिज्जाभयणिज्जसरूवेण लब्भमाणाणं केत्तियासु किट्टीस द्विदीसु च संभवो, किमविसेसेण सव्वासु आहो पडिणियदासु चेव किट्टीस द्विवीसु च तेसिमवद्वाणणिवमोति इममत्थविसेसं जाणावे दि
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$३१२. एदस्स चरिमावयवस्स अत्यणिद्देसे भासगाहा एत्थ णत्थि, छट्ठमूलगाहाविदियभासगाहाए एक्स्स अत्थं भणिहिदि, तत्थेव तस्स णिण्णयं कस्सामो । संपहि एविस्से मूलगाहाए पुग्वद्धणिबद्धाणं चउण्हमत्थविसेसाणं जहाकमं निण्णयं कुणमाणो तत्य पडिबद्धाणं भासगाहाणमियत्तावहारणट्ठमिदमाह -
* एदिस्से तिणि भासगाहाओ ।
$ ३१३. एविस्से मुलगा हाए अत्थविहासणटुमेत्थ तिष्णि भासगाहाओ होंति त्ति भणिवं होवि ।
* तं जहा ।
३१४. सुगमं ।
(१३०) दोसु गदी अभज्जाणि दोसु भज्जाणि पुव्वबद्धाणि । एइंदियकासु च पंचसु भजा ण च तसेसु ॥ १८३॥
६ ३११. 'कदीसु किट्टीसु च द्विदीसु' यह गाथासूत्रका अन्तिम अवयव है जो गति आदि मार्गंणाओंमें संचयरूपसे प्राप्त हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय और अभजनीयरूपसे कितनी कृष्टियों और उनकी स्थितियों में सम्भव हैं, क्या अविशेषरूपसे सभी कृष्टियों और उनकी स्थितियों में उनके अवस्थानका नियम है या प्रतिनियत कृष्टियों और उनकी स्थितियों में हो अवस्थानका नियम है - इस अर्थविशेषका ज्ञान कराता है ।
$ ३१२. इस गाथासूत्र के अन्तिम अवयव का अर्थनिर्देश करनेवालो भाष्यगाथा प्रकृत में नहीं है, किन्तु छठी मूलगाथाकी दूसरी भाष्यगाथा द्वारा इसका अर्थ कहेंगे, इसलिए वहीं पर उसका निर्णय करेंगे। अब इस मूलगाथा के पूर्वार्ध में निबद्ध चार अर्थविशेषों का क्रमसे निर्णय करते हुए उन अर्थोंमें प्रतिबद्ध भाष्यगाथाओंकी इयत्ताका अवधारण करनेके लिए इस सूत्र को कहते हैं
* इस चौथी मूल सूत्रगाथाकी तीन भाष्यगाथाएँ हैं ।
$ ३१३. इस मूलगाथाके अर्थकी विभाषा करनेके लिए इसके अर्थके प्रतिपादन में तीन भाष्यगाथाएं हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
वह जैसे ।
$ ३१४. यह सूत्र सुगम है ।
(१३०) दो गतियों में संचित हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय नहीं हैं और वो गतियों की अपेक्षा भजनीय हैं। तथा एकेन्द्रियसम्बन्धी पाँत्र कायमार्गणाओंमें संचित हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं । किन्तु त्रसमार्गणा में भजनीय नहीं हैं ॥१८३॥