Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 264
________________ खवगढीए नवमी मूलगाहा २३१ ५८४. केत्तियमेत्तेण ? सगअसंखेज्ज विभागभूदसव्वा वेदगकालमेत्तेण । कुदो ? वेदगा वेदगकालसमूहस्स कम्मट्ठिदिववएसारुहत्तादों । एवमेदम्मि चूलियप्पाबहुए समत्ते तदो अट्टमीए मूलगाहाए अथविहासा समत्ता भवदि । * नवमीए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । ५८५. अट्टम मूलगा हा विहासणाणंतरमेत्तो जहावसरपत्ताए णवममूलगाहाए समुक्कित्तणा काव्वात्ति वृत्तं होइ । (१५१) किट्टीकदम्म कम्मे हिदि- अणुभागेसु केसु सेसाणि । कम्माणि पुव्वबद्धाणि बज्झमाणानुदिण्णाणि ॥ २०४॥ ५८६. किममेसा नवमी मूलगाहा समोइण्णा त्ति चे ? वुच्चदे - णाणावरणादिकम्माणं afgarपढमसमए ठिदिअणुभागसंतकम्मपमाणावहारणटुं तेसि चेव द्विदि-अणुभागबंधोदय विसेसावहारणट्टं च गाहासुत्तमेदमोइण्णं; परिप्फुडमेवेत्थ तहाविहत्यणिद्दे सदंसणादो । तं जहा - 'किट्टीकदम्मि कम्में' पुव्वमकिट्टी सरूवेण मोहणीयाणुभागसंतकम्मे निरवसेसं किट्टोसरूवेण परिणमिदम्मि किट्टीवेदगपढमसमये वट्टमाणस्स तस्स द्विदिसंतादिपमाणगवेसणं कस्साम तिवृत्तं होइ । 'ठिदि - अणुभागेसु० पुग्वबद्धाणि' एवं भणिदे ताधे पुग्वबद्धाणि कम्माणि १८४. शंका - कियत्प्रमाण अधिक है ? समाधान - अपने असंख्यातवें भागप्रमाण समस्त अवेदककालप्रमाण अधिक है, क्योंकि वेदक और अवेदककालका समूह कर्मस्थिति संज्ञाके योग्य होता है । इस प्रकार इस चूलिकारूप अल्पबहुत्व के समाप्त होनेपर उसके अनन्तर आठवीं मूलगाथाको अर्थविभाषा समाप्त होती है । * अब नौवीं मूलगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं । $ ५८५. आठवीं मूलगाथाको विभाषा करनेके अनन्तर यथावसरप्राप्त नौवीं मूलगाथाकी समुत्कीर्तना करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । (१५१) मोहनीयकर्मके पूरे कृष्टिरूप किये जानेके बाद कृष्टिवेदक के प्रथम समय में पूर्वबद्ध ज्ञानावरणादि शेष कर्म किन स्थितियोंमें और किन अनुभागोंमें पाये जाते हैं । तथा बध्यमान और उदीर्ण ज्ञानावरणादि कर्म किन स्थितियोंमें और किन अनुभागों में पाये जाते हैं ॥२०४॥ ६ ५८६. शंका - यह नवीं मूलगाथा किसलिए अवतीर्ण हुई है ? समाधान - कहते हैं - कृष्टिवेदक के प्रथम समय में ज्ञानावरणादि कर्मोंके स्थिति और अनुभाग सत्कर्मके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए तथा उन्हींके स्थिति और अनुभागसम्बन्धी बन्ध और उदयविशेषके अवधारण करनेके लिए यह गाथासूत्र अवतीर्णं हुआ है, क्योंकि इस गाथासूत्र में उस प्रकार के अर्थका निर्देश स्पष्टरूपसे ही देखा जाता है । वह जैसे – 'किट्टोकदम्मि कम्मे' पहले अकृष्टिरूपसे अवस्थित मोहनीय कर्मसम्बन्धी अनुभाग सत्कर्मके कृष्टिस्वरूपसे परिणमित होनेपर कृष्टिवेदकके प्रथमं समयमें स्थित हुए उसके स्थिति और सत्र आदि प्रमाणका गवेषण करेंगे यह उक कथनका तात्पर्य है । 'ठिदि अणुभागेसु' 1

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