Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 284
________________ खवगसेढोए बज्झमाणपदेसग्गादो णिप्पज्जमाणापुवकिट्टीणं परूवणा २५१ किट्टीअंतरे अपुवकिट्टीआयारेण परिणमिदुं लहदि, ण तत्थ पडिसेहो अत्थि ति भावत्यो। संपहि इममेवत्थमुवसंहारमुहेण पदंसेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एत्तियाणि किट्टीअंतराणि गंतूण अपुव्वा किट्टी णिव्यत्तिज्जदि । ६६३२. गयत्थमेदं सुत्तं। एत्तो उवरि पुणो वि एत्तियमद्धाणं गंतूण विदिया अपुग्वकिट्टी णिवत्तिज्जदि त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं * पुणो वि एत्तियाणि किट्टीअंतराणि गंतूण अपुव्वा किट्टो णिव्वत्तिज्जदि । ६ ६३३. गयत्थमेदं पि सुत्तं । एवमेदमट्टिदमद्धाणमंतरं कादूण णेदव्वं जाव सयलकिट्टीअद्धामस्स · असंखेज्जविभागमेतीणं बंधेण णिवत्तिज्जमाणापुवकिट्टोणं चरिमकिट्टी बंधगद्धा. किट्टीदो हेढा असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्तद्धाणमोसरिदूण समुप्पण्णा ति एसो एत्थतणचरिमवियप्पो। संपहि एदस्सद्धाणस्स सुत्तणिहिट्ठस्स फुडीकरणं कस्सामो। तं जहा-दिवड्डगुणहाणितिभागमेत्ताणं समयपबद्धाणं जइ एगसंगहकिट्टीए सयलावयकिट्टीओ लभंति तो एगसमयपबद्धमत्तणवकबंधपदेसग्गस्स केत्तियमेत्तीओ अपुवकिट्टीओ लहामो ति तेरासियं कादूण ०-३२९० पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए बंधेण णिव्वत्तिज्जमाणाणमपुव्वकिट्टीणं पमाणं पुवकिट्टीणमसंखेदिभागमेत्तमागच्छदि । अपूर्व कृष्टिके आकारसे परिणमनको प्राप्त करता है, वहां ऐसा होने में कोई प्रतिषेध नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इसी अर्थको उपसंहार द्वारा दिखलाते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * इतने कृष्टि-अन्तरालोंको बिताकर अपूर्व कृष्टिको निष्पन्न करता है। ६६३२. यह सूत्र गतार्थ है । इससे आगे पुनरपि इतना स्थान जाकर दूसरी अपूर्व कृष्टिको निष्पन्न करता है इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र अवतीर्ण हुआ है * फिर भी इतने कृष्टि-अन्तरालोंको उल्लंघन कर अपूर्व कृष्टिको निष्पन्न करता है। ६६३३. यह सूत्र गतार्थ है। इस प्रकार इस अवस्थित स्थानरूप अन्तरालको प्राप्त करके जब जाकर समस्त कृष्टि-स्थानके असंख्यातवें भागप्रमाण बन्धसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टियोंका अन्तिम कृष्टि बन्धक काल, विवक्षित कृष्टिसे पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल स्थान पोछे सरकनेपर उत्पन्न होता है । इस प्रकार यह यहाँ सम्बन्धी अन्तिम विकल्प है। अब सूत्रनिर्दिष्ट इस स्थानको स्पष्ट करते हैं। वह जैसे-डेढ़ गणहानिके त्रिभागमात्र समयप्रबद्रोंको यदि एक संग्रह कृष्टिसम्बन्धी समस्त अवयव कृष्टियां प्राप्त होती हैं तो एक समयप्रबद्धप्रमाण नवकबन्धसम्बन्धी प्रदेशपुंज में कितनी अपूर्व कृष्टियां प्राप्त करेंगे, इस प्रकार त्रैराशिक करके फल राशिसे गुणित इच्छाराशिको प्रमाणराशिसे भाजित करनेपर बन्धसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टियोंका प्रमाण पूर्व कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण (ई) प्राप्त होता है। .. उदाहरण-डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्ध १२, विभागप्रमाण समय प्रबद्ध ४, एक संग्रह कृष्टिको अवयव कृष्टियां ९। __ यदि त्रिभागप्रमाण समयप्रबद्ध ४ की ९ अवयव कृष्टियां बनती हैं तो एक समयप्रबद्धसम्बन्धी नवकबन्धकी कितनी अपूर्व कृष्टियां बनेंगी, इस प्रकार इस विधिसे ९४१ = ९,

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