Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 298
________________ खवगसेढीए विणस्समाणकिट्टोणपरूवणा २६५ प्पहुडि जाव णिरुद्धपढमसंगहकिट्टीए विणासणकालदुचरिमसमओ त्ति ताव विणासिदासेसकिट्टीओ संपिडिदाओ केत्तियमेतीओ होंति त्ति आसंकाए तप्पमाणावहारणट्ठमुत्तरसुत्तमाह ___ * एदेण सव्वेण तिचरिमसमयमेत्तीओ सव्वकिट्टीसु पढम-विदियसमयवेदगस्स कोधस्स पढमकिट्टीए अबज्झमाणियाणं किट्टीणमसंखेन्जदिमागो। 5६६१. पढमसमयकिट्टीवेदगस्स कोहपढमसंगहकिट्टीए हेटिमोवरिमासंखेज्जभागमेत्ता किट्टीओ अबज्झमाणियाओ णाम । पुणो तत्थ उवरिमाबज्झमाणकिट्टीणमसंखेज्जदिभागमेतीओ चेव किट्टी ओ एदेण सम्वेण वि कालेण विणासिदाओ घटुव्वाओ, दोण्हमेदासि किट्टोणमावलियाए असंखेज्जविभागमेत्ताविसेसे वि एत्तो तासिमसंखेज्जगुणत्तसिद्धीए परमागमुज्जोवबलेण परिच्छिण्णत्तादो। जहा कोहपढमसंगहकिट्टीमहिकिच्च एसो किट्टीविणासणकमो परूविदो, तहा चेव सेससंगहकिटीणं समये समये अणगंतव्वोः किटीवेदगपढमसमयप्पडि जावअप्पप्पणो वेदगकालदुचरिमसमओ ति सव्वासि संगहकिट्टीणमवेदगकालस्स असंखेज्जविभागमेत्तकिट्टीओ अणुसमयोबट्टणाघादेण घादेमाणस्स तदविरोहाभावादो। एवमेदेण विहाणेण कोहपढमसंगहकिट्टीवेदगत्तमणुभूय तिस्से चरिमसमयवेदगभावेण पयट्टमाणस्स तववत्थाए जो पख्वणाभेदो तण्णिद्देसकरण?मुवरिमों सुत्तपबंधोलेकर विवक्षित प्रथम संग्रह कृष्टिके विनाश होनेके द्विचरम समय तक विनष्ट हुई अशेष कृष्टियां मिलाकर कितनी होती हैं ऐसी अशंका होनेपर उनके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * इस सब कालके द्वारा जो त्रिचरम समयमात्र कृष्टियाँ विनाशको प्राप्त होती हैं वे सम्पूर्ण कृष्टियोंमें प्रथम समय वेदकके और द्वितीय समय वेदकके कोषसंज्वलनको प्रथम कृष्टिसम्बन्धी अबध्यमान कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं। ६६६१. प्रथम समयसम्बन्धी कृष्टिवेदकके क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिके नीचे और ऊपर असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियां अबध्यमान होती हैं। पुनः उनमें उपरिम अबध्यमान कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियां ही इस सब कालके द्वारा विनष्ट होती हुई जाननी चाहिए, क्योंकि इन दोनों प्रकारको कृष्टियोंमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाणकी अपेक्षा विशेषता न होनेपर भी इनसे उनके असंख्यातगुणेपनेकी सिद्धि परमागमरूप उद्योतके बलसे जानी जाती है। जिस प्रकार क्रोधको प्रथम संग्रह कृष्टिको अधिकृत कर यह कृष्टियोंके विनाश होनेका क्रम कहा है उसी प्रकार शेष संग्रह कृष्टियोंका प्रत्येक समयमें जानना चाहिए, क्योंकि कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे लेकर अपने-अपने वेदककालके द्विचरम समय तक सम्पूर्ण संग्रह कृष्टियोंके अवेदक कालके असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंका अनुसमय अपवर्तनाघातके द्वारा घात करते हए वैसे होने में विरोधका अभाव है। इस प्रकार इस विधानसे क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदनका अनुभव करके उसका अन्तिम समयमें वेदन करने में प्रवृत्त हुए क्षपकके उस अवस्थामें जो प्ररूपणाभेद है उसका निर्देश करने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध गाया है कोषसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपकके जो प्रथम स्थिति होती है उस प्रथम स्थितिके एक समय अधिक एक आवलि शेष रहनेपर इस समय जो विधि होती है उस विधिको बतलायेंगे। ३४

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