Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 198
________________ वगढीए अममूलगाहाए पढमभासगाहा १६५ froaसमयपत्रद्धस्स एक्को वा कम्मपदेसो अणेगा वा कम्मपदेसा पढमद्विदीए वा विदिर्याद्विदीए वा नियमाण संभवंति, किंतु तेणेव पदेसग्गेण उदिष्णेण तस्स समयपबद्धस्स णिरवसेसं जिल्लेवणा भविस्सदि तं तारिसं पदेसग्यं से काले उदयाहिमुहं होटूण एण्हिमुवलब्भमाणसरूवं समयपबद्धसे सयमिवि वृत्तं होइ । उदया हिमुहावत्थं मोत्तूण उदयसमये चेव वट्टमाणं तं पवेसग्गं समयबद्धसे सयमिदि किरण घेपदे ? ण, तहा घेप्पमाणें एक्कम्हि चेव द्विदिविसेसे समयपब द्वसेसर वा बटूाणप्पसं काढो । ण चेदमिच्छिज्जदे; अणेगेसु ठिदिविसेसेस सांतरणिरंतर सरूवेण समयपबद्धसे सयमवचिदृवि ति उवरिमपरूवणाए विरोहप्पसंगादो । संपहि एक्स्स सुत्तस्त भावत्यो वुच्चदें । तं जहा - कम्मट्ठदिअभंतरे बद्धो एगसमयपबद्धो समयाहियबंधाबलियप्पहूडि उदोरिज्जमाणो पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तकालं निरंतर मुदीरिज्जदि सो तस्स बेइगकालो णाम । तदो एगसमयमादि काढून आवुक्कस्सेज पलिदो नमस्सा संखेज्जदि भागमेत्तमबेदगकाल मुल्लंघियूण पुणो वि पलिदोवमस्स असंलेज्जदि भागमे तकालं निरंतर मुक्कस्सेज वेदिज्जवे । एवमेदेण कमेण वेदिज्जमाणस्स तस्स समयबद्धस्स कम्मट्टिबिनम्भंतरे सगुक्कस्स जिल्लेवणकालमेत्ते सेसे तत्तो पहुडि जिल्लेवणपायोग्गभावेण बट्टमाणस्स वेदिदसेसगं पबेसग्गं केत्तियं पि पढमद्विदीए समयाहियउदयावलियबज्जाए निरंतरं होइनच्छनं लहवि, विदियट्ठिदोए च सव्वासु दिट्ठदीसु होणावद्वाणं लहदि । reet तासु दोस वि द्विदीस निरंतर महोवूण अण्णदरम्मि एगट्ठिदिविसेसम्म चेव एग-दो-तिष्णि उदय में निक्षिप्त करनेपर तत्पश्चात् उस विवक्षित समयप्रबद्धका एक भी कर्मप्रदेश अथवा अन्य बहुतसे कर्मप्रदेश प्रथम स्थितिमें और द्वितीय स्थितिमें नियमसे नहीं पाये जाते, किन्तु उसी प्रदेशपुंजके उदय होनेके बाद उस समयबद्धका पूरा निर्लेपन हो जायेगा वह उस प्रकारका प्रदेशपुंज तदनन्तर समय में उदयके अभिमुख होकर इस समय उपलभ्यमान होता हुआ समयप्रबद्धशेष कहलाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका-उदयकी अभिमुख अवस्थाको छोड़कर उदय समयमें विद्यमान वह प्रदेशपंज सययप्रबद्धशेष कहलाता है ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि ऐसा ग्रहण करनेपर एक ही स्थिति विशेष में समय प्रबद्ध शेषके व्यवस्थानका प्रसंग प्राप्त होता है । परन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करनेपर अनेक स्थिति- विशेषों में सान्तर और निरन्तर रूपसे समयप्रबद्धशेष अवस्थित रहता है इस उपरिम प्ररूपणा के साथ विरोधका प्रसंग प्राप्त होता है । अब इस सूत्र का भावार्थ कहते हैं । वह जैसे - कर्मस्थितिके भीतर बन्धको प्राप्त हुआ एक समयप्रबद्ध एक समय अधिक बन्धावलिसे लेकर उदीरणाको प्राप्त होता हुआ पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक निरन्तर उदीरित होता रहता है। वह उसका वेदककाल कहलाता है । इसके बाद एक समयसे लेकर उत्कृष्टरूपसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अवेदक कालको उल्लंघन कर फिर भी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक निरन्तर उत्कृष्टरूपसे वेदन करता है । इस प्रकार इस क्रमसे वेदे जानेवाले उस समयप्रबद्धका कर्मस्थितिके भीतर अपना उत्कृष्ट निर्लेपन कालके शेष रहनेपर वहांसे लेकर निर्लेपन प्रायोग्य रूप से विद्यमान उस समयप्रबद्धका वेदे जानेसे शेष बचा प्रदेशपुंज कितना ही एक समय अधिक आवलिसे रहित प्रथम स्थितिमें निरन्तररूपसे अवस्थित रहता है और द्वितीय स्थितिसम्बन्धी सब स्थितियों में अवस्थित रहता है । अथवा उन दोनों ही स्थितियों में निरन्तररूपसे

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