Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * तं जहा। ६२३२. सुगमं। (१२१) एसो कमो च कोघे माणे णियमा च हादि मायाए ।
लोभम्हि च किट्ठीए पत्तेगं होदि बोद्धव्यो ॥१७४॥ ६२३३. जो एसो कमो कोधे परूविदो सो चेव गिरवसेसो माण-माया-लोभेसु वि अप्पप्पणो किट्टीओ णिरुभियूण पादेक्कं जोजेयव्यो ति वुत्तं होदि । संपहि एदस्सेवत्थरस फुडीकरण?मुवरिमं विहासागंथमाह
* विहासा। ६२३४. सुगम। * जहा कोहे चउत्थीए गाहाए विहासा तहाँ माण-माया-लोभाणं पि णेदव्वा ।
६२३५. जहा चउत्थीए भासगाहाए कोहसंजलणमहिकिच्च परंपरोवणिधा परूविदा तहा चेव माण-माया लोभाणं पि परंपरोवणिधा णेदव्वा त्ति सुत्तत्थसंगहो। संपहि माणादिसु पयदत्थजोजणा एवं कायव्वा त्ति जाणावणमिदमाह
* माणादिवग्गणादो सुद्धं माणस्स उत्तरपदं तु ।
सेसो अणंतभागो णियमा तिस्से पदेसग्गे ॥
* वह जैसे। 5२३२. यह सूत्र सुगम है।
(१२१) जो यह क्रम क्रोधसंज्वलनको कृष्टियोंके विषयमें कहा है वही क्रम नियमसे मान, माया और लोभ इनमेंसे प्रत्येक कषायको कृष्टियोंके विषय में जानना चाहिए ॥१७॥
६२३३. जो यह क्रम क्रोध संज्वलनके विषयमें प्ररूपित किया है निश्शेषरूपसे वही क्रम मान, माया और लोभसंज्वलनोंके विषयमें भी अपनी-अपनी कृष्टियोंको विवक्षित कर प्रत्येककी योजना करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए आगेके विभाषा ग्रन्थको कहते हैं
* अब इस पांचवीं भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ६२३४. यह सूत्र सुगम है।
* जिस प्रकार चौथो भाष्यगाथामें क्रोधसंज्वलनको प्ररूपणा की उसी प्रकार मान, माया और लोभसंज्वलनकी भी प्ररूपणा करनी चाहिए।
६२३५. जिस प्रकार चौथी भाष्यगाथामें क्रोधसंज्वलनको अधिकृत करके परम्परोपनिधाकी प्ररूपणा की उसी प्रकार मान, माया और लोभकी अपेक्षा भी परम्परोपनिधाका कथन करना चाहिए यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। अब मानादिकमें प्रकृत अर्थकी योजना इस प्रकार करनी चाहिए इस बातका ज्ञान कराने के लिए इस सूत्रको कहते हैं
* मानसंज्वलनको आवि वर्गणामेंसे मानसंज्वलनके उत्तरपद अर्थात् अन्तिम वर्गणाको घटावे। इस प्रकार घटानेपर जो अनन्तवा भाग शेष रहता है उतना उसको आदि वर्गणामें शुद्ध शेषका प्रमाण होता है।