Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
खवगसेढीए तदियमूलगाहाए पढमभासगाहा
संदिट्ठीए एत्तियमिदि घेत्तव्यं ४९ । पुणो एवं बे भागे काढूण तत्थेग भागो असंखेज्जभागब्भहियो कसायदव्वं भवदि । तस्स पमाणमेदं २५ । पुणो सेसभागो असंखेज्जभागोण णोकसायदव्वं होदि । तं च एदं २४ । संपहि कसायभागो बारससु संगह किट्टोस जहापविभागमवचिदृदिसि कसायदव्वस्स बारसमभागो कोधपढमसंगहकिट्टीए दिस्सदि । सो वुण मोहणीय सयलदव्वा वेक्खाए योवूण चउवीस भागमेत्तो होदि । संदिट्ठीए तस्स पमाणमेत्तियं होदि २ । पुणो णोकसायदव्वं पि सव्वं कोहसंजलणे संकामिदमत्थि, तं च सव्वमेव किट्टीओ करेमाणस्स कोहपढमसंग हकिट्टीसरुवेणेव परिणमिय चिट्ठदि । किं कारणं ? तस्स सेस किट्टीपरिहारेण वेदगपढम संगह किट्टो सरूवेणेव परिणामणियमदंसणादो । तदो णोकसायदव्वमेदं पुव्विल्लभागपमाणेण कीरमाणं बारसहं गुणगारवाणमुप्पत्तीए णिमित्तं होदि । संपहि पुग्वृत्तबारसमभागमेत्तको हपढमसंगह किट्टीप देसग्गमेथे पविखविय हेट्ठिमरासिणा उवरिमरासिम्मि ओवट्टिदे कोहविदियसंगह कट्टोदो पढमसंगह किट्टी पवेसग्गेण तेरसगुणा जादा । एदेण कारणेण सुत्ते 'तेरसगुणमेत्तं' इदि भणिदं ।
७५
यह प्ररूपणा करते हैं । वह जैसे - मोहनीय कर्मका समस्त द्रव्य संदृष्टिकी अपेक्षा इतना ग्रहण करना चाहिए - ४९ । पुनः इन द्रव्यके दो भाग करके उनमें से असंख्यातवां भाग अधिक एक भागप्रमाण कषायसम्बन्धी द्रव्य होता है । उसका प्रमाण यह है २५ । पुनः शेष असंख्यातवाँ भाग कम नोकषायसम्बन्धा द्रव्य होता है । उसका प्रमाण यह है २४ । अब कषायसम्बन्धा बारह भाग संग्रह कृष्टियों में यथाविभाग अवस्थित है, इसलिए कषायसम्बन्धी द्रव्यका बारहवाँ भाग क्रोधकषायको प्रथम संग्रह कृष्टिमें दिखाई देता है । परन्तु वह द्रव्य मोहनाय कषायके समस्त द्रव्यको अपेक्षा चोबीसवां भागमात्र होता है। संदृष्टिसे उसका प्रमाण इतना है - २ । पुनः नोकषाय द्रव्य भी सम्पूर्ण क्रोवसंज्वलन मे संक्रमित हुआ है और वह सभी द्रव्य कृष्टियों को करनेवालेके क्रोध-संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिरूपसे हो परिणमकर अवस्थित रहता है । शंका- इसका क्या कारण है ?
समाधान - क्योंकि उस नोकषायसम्बन्धी द्रव्यके शेष कृष्टियोंके परिहार द्वारा वेदक जीवके प्रथम संग्रह कृष्टिरूपसे हो परिणमनका नियम देखा जाता है ।
इसलिए इस नोकषायके द्रव्यको पहलेके भागप्रमाणसे करते हुए वह बारह गुणकाररूप अंकों की उत्पत्तिका कारण होता है । अब पूर्वोक्क बारहवें भागप्रमाण क्रोधकषायसम्बन्धा प्रथम संग्रह कृष्टि प्रदेशपुंजको इसोमे प्रक्षिप्त करके अधस्तन राशिसे उपरिम राशिके भाजित करनेपर क्रोधको दूसरी संग्रह कृष्टिसे प्रथम संग्रह कृष्टि प्रदेशपुंजको अपेक्षा तेरहगुणा हो जाती है । इस कारण से सूत्रमे 'वरहगुणीप्रमाण' ऐसा कहा है ।
विशेषार्थ - यहाँ क्रोध संज्वलनस श्रोणपर आरोहण करनेवाला जोव विवाक्षत है। अतः उसके १२ संग्रह कृष्टियां नियमसे पाया जाती हैं । अब प्रकृतमे यह देखना है कि जो जीव क्रोध संज्वलनको प्रथम संग्रहकृष्टिका प्रथम समयमें वेदन कर रहा है उसमे उस दूसरा संग्रह कृष्टिको अपेक्षा कितना अधिक द्रव्य पाया जाता है, होन या समान पूरा द्रव्य तो पाया नहीं जा सकता, क्योंकि उस प्रथम कृष्टिके वंदन करनेके समय हो उसमें नोकषायोका द्रव्य भी संक्रामत हा चुकता है । अतः वह दूसरा कृष्टिको अपेक्षा अधिक हो होना चाहिए। कितना अधिक होता है इसा बातका स्पष्टोकरण करते हुए क्रोधसंज्वलनका दूसरो संग्रह कृष्टिस तरहगुणा अधिक होता है यह बतलाया हूँ । वह तेरहगुणा केस घटित होता है इस बातका स्पष्टीकरण करत हुए वारसन स्वामा लिखते हैं कि चारित्रमाहनीयकर्मका कुल द्रव्य अंकसंदृष्टिका अपेक्षा ४९ स्वीकार करनेपर