Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसेढीए ं विदियमूलगाहाए पढमभासगाहा
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१७६. एवमेत्तिएण पबंधेण 'द्विदीसु वा केत्तियासु का किट्टि त्ति एवं मूलगा हावयवमस्सियूण 'किट्टीसु च द्विदिविसेसेस असंखेज्जेसु०' त्ति एदस्स पढमभासगाहा पुग्वद्धस्स विहासणं काण संपहि 'कविस च अणुभागेसु च' इच्चेदं मूलगाहावयवमस्सिदृण 'णियमा अणुभागेसु च अणतेसु.' त्ति एदस्स भासगाहापच्छद्धस्स विहासणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* एक्क्का किट्टी अणुभागेसु अनंतेसु ।
$ १७७. एक्केक्का संग किट्टी तदवयवकिट्टी वा णियमा अनंतेसु अणुभागेसु वदृदित्ति वृत्तं होइ । एवेण संखेज्जासंखेज्जाणुभागेसु किट्टीणं संभवो णत्थि त्ति जाणाविदं सव्वजहण्णियाए किट्टीए सम्यजीवहितो अनंतगुणमेत्ताणमविभागपडिच्छेदाणमुवलंभादो । संपहि एक्केक्का किट्टी असंखेज्जेस द्विदिविसेसेसु वदृदि त्ति वुत्ते जहा सव्वासि किट्टीणं सम्वेस द्विदिविसेसेस अवद्वाणसंभवो जादो एवमेत्थ वि एक्केक्का किट्टी अणतेस अणुभागेसु वदृदि त्ति एवेण वयणेण एक्किस्से द्धिकट्टीए अप्पणो अणुभागेस सेसकिट्टीणमणुभागेसु च संभवो पसज्जवि त्ति एवंविहविप्पडिवत्तीए णिरायरणमुत्तरसुत्त भणइ
* जेसु पुण एक्का ण तेसु विदिया ।
विशेषार्थ - क्रोध संज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदनके समय शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियों सम्बन्धी अवान्तर कृष्टियोंका वेदन नहीं होता और इसलिए तत्सम्बन्धी द्वितीय स्थिति में से प्रदेश पुंजका प्रथम स्थितिकै साथ सम्बन्ध नहीं पाया जाता। इसी कारण प्रकृतमें उक्त ग्यारह संग्रह कृष्टियों सम्बन्धी प्रदेशपुंजका प्रथम स्थिति में निषेध किया है ।
$ १७६. इस प्रकार इसने प्रबन्ध द्वारा 'द्विदीसु वा केत्तियासु का किट्टी' इस प्रकार मूल गाथा के इस वचनका आश्रयकर 'किट्टी च द्विदिविसेसेसु असंखेज्जेसु०' इस प्रथम भाष्यगाथा सम्बन्धी पूर्वार्ध की प्ररूपणा कर अब 'कदिसु अणुभागेसु च मूळगाथाके इस वचनका आश्रय कर 'णियमा अणुभागेसु च अणंतेसु०' भाष्यगायासम्बन्धी इस उत्तरार्धकी प्ररूपणा करते हुए आगे सूत्र को कहते हैं
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* एक-एक संग्रह कृष्टि अनन्त अनुभागों में रहती है ।
$ १७७. एक-एक संग्रह कृष्टि अथवा उनकी अवयव कृष्टि नियमसे अनन्त अनुभागों में रहती है । इस वचन द्वारा संख्यात और असंख्यात अनुभागों में कृष्टियां सम्भव नहीं हैं इस बातका ज्ञान करा दिया है, क्योंकि सबसे जघन्य कृष्टिमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं । अब एक-एक कृष्टि असंख्यात स्थितिविशेषोंमें रहती है ऐसा कहनेपर जिस प्रकार सब कृष्टियों का सब स्थिति विशेषों में अवस्थान सम्भव हो जाता है इसी प्रकार प्रकृतमें भी 'एक-एक कृष्टि अनन्त अनुभागों में रहती है' इस प्रकार इस वचनसे एक विवक्षित कृष्टिका अपने-अपने अनुभागों में जिस प्रकार रहना सम्भव है उसी प्रकार शेष कृष्टियोंके अनुभागों में भी रहना सम्भव प्राप्त होता है इस प्रकार इस तरहको विप्रतिपत्तिका निराकरण करनेके लिए आगे के सूत्रको कहते हैं
* किन्तु जिन अनुभागों में एक कृष्टि रहती है उनमें दूसरी कृष्टि नहीं रहती ।