Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे आसंकाए णिण्णयविहाणट्ठमुवरिमं पबंधमाह___* लोभस्स चेव विदियसमए विदियसंगहकिट्टीए तिस्से जहण्णियाए किट्टीए दिजमाणगं विसेसाहियमसंखेजदिमागेण ।
६८३. पंढमसमए णिव्वत्तिदा जा लोभस्स विदियसंगहकिट्टी तिस्से हेट्ठा विदियसमए णिव्वत्तिज्जमाणा अव्वकिट्टीणं पंती पुवकिट्टोहिं सह विवक्खिया विदियसमए विदियसंगहकिट्टी णाम । तिस्से जा जहणिया किट्टी तत्थ दिज्जमाणयं पदेसग्गं पढमसंगहकिट्टीचरिमकिट्टोए णिसित्तपदेसग्गं पेक्खियूण विसेसाहियं होदि। होतं पिणियमा असंखेजदिभागब्भहियं चेव, अण्णहा तत्तो एदस्स एयवग्गणविसेसमेत्तेण हाइकूण एयगोवुच्छायारेण समवट्ठाणाणुववत्तीदो। तं जहा
5 ८४. पढमसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टिम्मि जेत्तिमो एण्हिं पदेसणिक्खेवो को तेत्तियमेत्तो चेव जइ विदियसंगहकिट्टीए हेट्ठिमाणमपवकिट्टोणं जहण्णकिट्टीए पदेसणिक्खेवो होज्ज तो तत्तो एदस्सासंखेज्जदिभागहोणतं पसज्जदे, तत्थ पुवावट्टिदासखेज्जदिभागमेत्तदव्वस्सेत्य परिहोणतदसणावो । ण चेदमिच्छिज्जदे, सव्वासु किट्टीसु एया गोवुच्छासेढि ति पदण्णाए विघादप्पसंगादो। तम्हा तत्थ पुवावटिददव्वमेत्तेणाणंतभागहोणेण समहिओ पदेसणिक्खेवो एत्थ इच्छियव्यो। अण्णहा तत्तो एगवग्गणविसेसमेत्तेण हाइदूण एत्थतणपदेसग्गस्सावट्ठाणविरोहावो। तदो सिद्धमसंखेज्जविभागुत्तरो पदेसणिसेगो एवम्मि उद्देसे जादो ति। एवमुरि वि जत्थ जत्थ पुवकिट्टीणं चरिमादो अपुव्वाणं जहणकिट्टीए असंखेज्जविभागुत्तरं पदेसणिक्खेवं भणिहिदि तत्य तत्य कारणकृष्टियोंमें जो जघन्य कृष्टि है उसमें किस प्रकारका प्रदेशविन्यास होता है ऐसी आशंका होनेपर निर्णय करनेके लिए आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* लोभको ही दूसरे समयमें उस दूसरी संग्रह कृष्टिको जघन्य कृष्टिमें असंख्यातवां भागप्रमाण विशेष अधिक प्रदेशपुंज दिया जाता है।
६८३. प्रथम समयमें लोभकी जो संग्रह कृष्टि निष्पन्न हुई उसके नीचे दूसरे समयमें जो अपूर्व कृष्टियोंकी पंक्ति निष्पन्न हो रही है, पूर्व कृष्टियोंके साथ विवक्षित हुई वह दूसरे समयमें दूसरी संग्रह कृष्टि कहलाती है। उसकी जो जघन्य कृष्टि है उसमें दिया जानेवाला प्रदेशपुंज प्रथम संग्रह कृष्टिको अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजको देखते हुए विशेष अधिक होता है। ऐसा होता हुआ भी नियमसे असंख्यातवां भागप्रमाण ही अधिक होता है, अन्यथा उससे इसके एक वर्गणा विशेषमात्र घटकर एक गोपुच्छाके आकाररूप समवस्थान नहीं बन सकता है। वह जैसे
६.८४. प्रथम संग्रह कृष्टिको अन्तिम कृष्टिमें इस समय जितना प्रदेशनिक्षेप किया है उतना ही यदि दूसरी संग्रह कृष्टिकी अधस्तन अपूर्व कृष्टियोंसम्बन्धी जघन्य कृष्टिमें प्रदेश निक्षेप होवे तो उससे इसके असंख्यातवें भागहीनपनेका प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि उसमें जो पूर्वका असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्य अवस्थित है उसकी हानि देखी जाती है। परन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि समस्त कृष्टियोंमें एक गोपुच्छा पंक्ति होती है इस प्रतिज्ञाके विघातका प्रसंग प्राप्त होता है, इसलिए उसमें जो पहलेका अनन्तवा भागहीन द्रव्य अवस्थित है उससे अधिक प्रदेश निक्षेप यहाँ स्वीकार करना चाहिए, अन्यथा उससे एक वर्गणाविशेष मात्र घटकर यहाँके प्रदेशपुंजके अवस्थान माननेमें विरोध आता है, इसलिए सिद्ध हुआ कि असंख्यातवां भाग अधिक प्रदेश निक्षेप इस स्थान में हो गया है । इसी प्रकार आगे भी जहाँ-जहां पूर्व कृष्टियों सम्बन्धी अपूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें असंख्यातवा भाग अधिक प्रदेश निक्षेप कहेंगे वहां-वहां यह कारण कहना चाहिए। अब