Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयपवलासहिदे कसायपाहुडे 'कम्हि कसायम्हि कदि च किट्टीओ' ति। एसा दुविहा पुच्छा संगहकिट्टीगमंतरकिट्टीणं च पमाणविसेसमुवेक्खदे । पुणो किट्टीओ करेमाणो टिट्टि-अणुभागेहि चदुण्हं संजलणाणं पदेसग्गं किमोकडुदि, आहो उक्कडुदि त्ति करणविसेसावहारणलक्खणो तदिओ अत्यो। तम्हि पडिबद्धो सुत्तस्स तदियावयवो 'किट्टीए किं करणं' इदि । किट्टीकरणावत्थाए कदमं करणं होति, किमोकड्डणाकरणमाहो उपकडणाकरणं तदुभयं वा त्ति पुच्छामुहेण तहाविहत्यविसए एदस्स पडिबद्धत्तदंसणादो। एणो किट्टीगदाणुभागस्स केरिसं लक्खणं, किमविभागपडिच्छेदुत्तरकमबड्डीए फद्दयगदाणुभागरसेव तदवट्ठाणसंभवो आहो अणंतगुणवडिसहवेण तदवट्ठाणणियमो ति एवंविह पुच्छा हेण विट्टोणं सरूवणिद्देसविसओ चउत्थो अत्थो एदम्मि पडिबद्धो, सुत्तस्स चरिमावयवो 'लक्खाणमथ कि च किट्टीए' ति। तदो एवं विहाणं चउण्हमत्थविसेसाणं किट्टीकरणद्धापडिबद्धाणं णिण्णयविहाणटुमेवं पढमगाहासुत्तं पुच्छामेत्तेण सूचिदासेसविसेसपरूवणं समोइण्णमिवि घेत्तट्वं । संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए अत्यविसेसं विहासेमाणो चुण्णिसुत्तयारो उवरिमं पबंधमाढवेइ
* एदिस्से गाहाए चत्तारि अत्था ।
१२९. चउण्हं कसायाणमभेदेण किट्टीणं पमाणावहारणं पुणो एक्केक्कस्स कसायस्स णिरंभणं कादूण किट्टीणं पमाणावहारणं किट्टीकारयस्स करणविसेसावहारणं किट्टीणं लक्खणविहाणं चेदि एवमेदे चत्तारि अत्यविसेसा किट्टीकरणद्धा संबंषिणो एदम्मि पढमगाहासुत्तम्मि णिबद्धा त्ति ।
इस गाथामें प्रतिबद्ध यह दूसरा पाद है-'कम्हि कसायम्हि कदि च विट्टीओ'। इस प्रकार यह दोनों प्रकारको पृच्छा संग्रह कृष्टियों और अन्तरकृष्टियोंसम्बन्धी प्रमाण विशेषकी अपेक्षा रखती है। पुनः कृष्टियोंको करनेवाला स्थिति और अनुभागकी अपेक्षा चारों संज्वलनोंके प्रदेशपुंजको क्या अपकर्षित करता है या उत्कर्षित करता है इस प्रकार करण विशेषके अवधारणरूप लक्षणवाा तीसरा अर्थ उस गाथामें प्रतिबद्ध तीसरा पाद है-'किट्टीए किं करणं'। कारण कि कृष्टिकरणको अवस्थामें कौन करण होता है, क्या अपकर्षणकरण होता है या उत्कर्षणकरण होता है या वे दोनों करण होते हैं इस प्रकार पृच्छामुखसे उस प्रकारके अर्थके विषय में यह तीसरा पाद प्रतिबद्ध देखा जाता है । पुनः कृष्टिगत अनुभागका किस प्रकारका लक्षण है ? क्या अविभागप्रतिच्छेदोंकी उत्तरक्रम वृद्धिरूपसे स्पर्धकगत अनुभागका हो वहाँ अवस्थान सम्भव है या अनन्तगुणवृद्धिरूपसे अनुभागके अवस्थानका नियम वहां पाया जाता है इस तरह इस प्रकारके पृच्छामुखसे कृष्टियोंके स्वरूपका निर्देश करनेवाला चौथा अर्थ इसमें प्रतिबद्ध है। सूत्रका वह अन्तिम पाद है'लक्खणमध किं च विट्टीए'। इसलिए कृष्टिकरणके कालसे सम्बन्ध रखनेवाले इस प्रकारके चौथे अर्थ सम्बन्धी विशेषोंका निर्णय करने के लिये पृच्छामुखसे सूचित हुए समस्त विशेषोंका सूचन करनेवाला प्रथम गाथासूत्र अवतीर्ण हुआ है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । अब इस गाथाके इस प्रकारके अर्थविशेषको विभाषा करते हुए चूर्णिसूत्रकार आगेके प्रबन्धका आरम्भ करते हैं
* इस गाथाके चार अर्थ हैं।
६१२९. चारों कषायोंका अभेद करके कृष्टियोंके प्रमाणका अवधारण करना, पुनः एक-एक कषायको विवक्षित कर कृष्टियोंके प्रमाणका अवधारण करना, कृष्टिकारकके करणविशेषका अवधारण करना तथा कृष्टियोंके लक्षणका विधान करना। इस प्रकार कृष्टिकरणकालसे सम्बन्ध रखनेवाले ये चारों अर्थविशेष इस प्रथम गाथासूत्र में निबद्ध हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।