Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे बज्झमाणकिट्टीणं पवुत्तिणियमदसणादो।
* सेसाओ दोसंगहकिट्टीओ ण बझंति ण वेदिज्जति ।
5 ११७. कुदो ? जहाकममेव संगहकिट्टीओ वेदेमाणस्स पढमसंगहकिट्टी वेदगावत्याए सेसदोसंगहकिट्टोणमुदयासंभवादो, जस्स कसायस्स जं किट्टि वेदयदि तस्स तदायारेणेव बंधो जोड ति णियमदंसणादो च। माण-माया-लोभाणं पि अप्पप्पणो पढमसंगहकिटीणं वेदगसंबंधिणीणमसंखेज्जा भागा बज्झंति, सेसदोसंगहकिट्टीओ ण बझंति। तेसिं चेव सव्वाओ संगहकिट्टओ ताव ण वेदिज्जति चेव, कोहवेदगकालभंतरे तदुदयपवुत्तीए विरोहादो ति एसो वि अत्था एत्थेव सुत्ते णिलीणो त्ति घेत्तव्वं ।
६११८. संपहि कोहसंजलणस्स पढमाए संगहकिट्टीए हेट्ठिमोवरिमाणमसंखेज्जविभागाणमबज्झमाणावेदिज्जमाणाणं थोवबहुत्तपत्वण?मत्तरो सुत्तपबंधोवाली कृष्टियोंकी प्रवृत्तिका नियम देखा जाता है।
* कोष संज्वलनको शेष दो संग्रहकृष्टियां न बंधती हैं और न वेदी जाती हैं।
६११७. क्योंकि यथाक्रम हो संग्रह कृष्टियोंका वेदन करनेवाले बीवके प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदन करनेको अवस्थामें शेष दो संग्रह कृष्टियोंका उदय होना असम्भव है। कारण कि जिस कषायको जिस कृष्टिका वेदन करता है उसके उस रूपसे हो बन्ध होता है ऐसा नियम देखा जाता है। मान, माया ओर लाभ कषायोंका अपेक्षा भो अपनी-अपनी प्रथम संग्रह कृष्टियोंका वेदन करते समय उन कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण वे बन्धको प्राप्त होतो हैं, शेष दो संग्रहकृष्टियां नहीं बंधती हैं। तथा प्रकृतमें उन्होंकी समस्त संग्रह कृष्टियो तब तक नहीं हो वेदो जाता हैं, क्योंकि क्रोधके वेदककालके भीतर उनका उदय प्रवृत्ति होने में विरोष है इस प्रकार यह अर्थ भी इसी सूत्रमें लीन है ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
विशेषार्थ-प्रश्वकर्णकरण कालके सम्पन्न होनेपर दुसरा त्रिभाग कृष्टिकरणका है। जब पूर्व ओर अपूर्व स्पर्धकोंका वेदन करते हुए प्रथम स्थितिम एक आवड काल शेष रहता है तब कष्टिकरणका काल समाप्त होकर अगले समयमें यह जाव क्रोध संज्वलनको प्रथम संग्रह कष्टिमेंसे प्रदशपंजका अपकर्षण करके उसको प्रथम स्थिति करता है और यहोसे क्रोधको प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन काल प्रारम्भ हो जाता है । क्रम यह है-क्रोधका प्रयम संग्रह कृष्टि सम्बन्धो जघन्य और उत्कृष्ट कृष्टियोको छाड़कर बोचका असंख्यात बहुभाग प्रमाण कृष्टियोंका उदय होता है तथा इसी क्रोधको प्रथम संग्रह कृष्टि सम्बन्धो जा कृष्टियां उदयरूप हाती हैं उनसे विशेष हीन कृष्टियां बन्धको प्राप्त होती है। यहा प्रथम समय में न ता काध संज्वलनको शेष रहों दो संग्रह कृष्टियोंका उदय होता है और न बन्ध हाता हे ओर न हा इस समयमें मान, माया और लाभ संज्वलन सम्बन्धी संग्रह कृष्टियोंका ही उदय और वन्ध होता है। ऐसा नियम है कि क्षपकश्रेणिार आरूढ़ हुए इस जावक प्रत्येक समयमें परिणामोंमें अनन्तगुणो विशुद्धि बढ़ती जाती है, इसलिए कृष्टिकारकके क्रोध संज्वलनको बिसे तोसरी संग्रह कृष्टि कहा गया है, वेदन कालके समय वह पहली हो जाती है । कारणका निर्देश मूल टोकामें किया हो है। इसी प्रकार बागे भो समझना चाहिए।
६११८. अब क्रोध संज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टि सम्बन्धी असंख्यातवें भाग प्रमाण अधस्तन और उपरिम नहीं बंधनेवालीं और नहीं उदयको प्राप्त होनेवालो कृष्टियोंके अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध माया है