Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयषवलासहिदे कसायपाहुडे • सेसेसु किट्टिट्ठाणेसु अणंतभागहीणं दिजमाणगस्स पदेसग्गस्स ।
६९३. कुदो ? एगेगवग्गणविसेसमेत्तेण अणंतराणंतरादो होणं कादूण तत्थ पदेसणिसेगं कुणमाणस्स पयारंतराणुवलंभादो।
* विदियसमए दिजमाणयस्स पदेसग्गस्स एसा उट्टकूडसेढी ।
९४. जदो एवं बारससु किट्टिट्ठाणेस असंखेज्जविभागहाणीए परिहाइदूण एक्कारससु किट्टिट्ठाणेस असंखेजभागुत्तरवड्डीए वडिदूण पुणो सेसासेसकिट्टिट्ठाणेसु.अणंतभागहाणीए विदियसमए दिज्जमाणपदेसग्गस्स समवढाणणियमो तदो एसा विज्जमाणपदेसग्गस्स सेढी उट्टकूडसरिसी जावा। जहा उट्टस्स पुट्ठी पच्छिमभागे उच्चा होदूण पुणो मज्झे णीचा भवदि, पुणो उवरि वि णीचुच्चसरूवेण गच्छवि, एवमिहावि पदेसणिसेगो आदिम्मि बहुगो होदूण पणो थोवो भवदि पुणो वि संघिविसेसेसु थोवो बहुओ च होदूण गच्छवि ति तेण कारणेण उट्टकूडसमाणा सेढी विज्जमाणपवेसग्गस्स जादा त्ति भणिवं होइ।
६९५. संपहि एत्थेव विस्समाणपदेसग्गस्स सेढिपख्वणमिवमाह* शेष कृष्टिस्थानोंमें दीयमान प्रदेशजका अनन्त भागहीन अवस्थान होता है।
६९३. क्योंकि एक-एक वर्गणाविशेषको अनन्तर-तदनन्तर क्रमसे हीन करके उन कृष्टिस्थानोंमें प्रदेशनिषेकको करनेवालेके अन्य प्रकार नहीं उपलब्ध होता।
* इस प्रकार दूसरे समयमें दीयमान प्रदेशजको यह उष्ट्रकूट श्रेणि है।
६९४. यतः इस प्रकार बारह कृष्टि स्थानोंमें असंख्यातवें भागहोनप्रमाण घटकर और ग्यारह कृष्टिस्थानोंमें असंख्यात भाग वृद्धि प्रमाण बढ़कर पुनः शेष सम्पूर्ण कृष्टि स्थानोंमें अनन्तभागहानिरूपसे दूसरे समयमें दिये जानेवाले प्रदेशपुंजके अवस्थानका नियम है, इसलिए दिये जानेवाले प्रदेशपुंजकी यह श्रेणि उष्ट्रकूटके समान हो जाती है। जिस प्रकार ऊंटकी पीठ पिछले भागमें ऊंची होकर पुनः मध्यमें नीची हो जाती है। पुनः आगे भी ऊंची और नीची होकर जाती है इसी प्रकार यहां इस श्रेणिमें भी प्रदेशनिषेक प्रारम्भमें बहत होकर पुनः स्तोक होता है तथा फिर भी सन्धि-विशेषोंमें कम-अधिक होता जाता है, इस कारण दोयमान प्रदेशपुंजकी श्रेणि उष्ट्रकूटके समान हो गयी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
विशेषार्थ-संग्रहकृष्टियां बारह हैं, अतः उनके सन्धिस्थान ग्यारह होते हैं तथा इस कारण अन्तर कृष्टियोंके सन्धिस्थान बारह हो जाते हैं। इन सन्धिस्थानोंको ध्यानमें रखकर निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजका अवस्थान जिस-जिस स्थानपर पूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टिसे अपूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टि कही गयो है वहां-वहाँ तदनन्तर अधस्तन कृष्टि में निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजसे असंख्यातवें भाग प्रमाण अधिक होता है तथा जिस-जिस स्थानपर अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टिसे पूर्वकृष्टियोंकी जघन्य कृष्टि कही गयो है वहाँ-वहाँ पूर्व निक्षिप्त हुए द्रव्यसे असंख्यातवें भागहीन द्रव्य होता है । तथा इन तेईस स्थानोंको छोड़कर शेष रहे सभी स्थानोंमें अनन्तवें भागहीन प्रदेश विन्यास होता है । इस कारण दूसरे समयमें पूरा प्रदेश विन्यास ऊंटकी पोठके समान हो जाता है। जिस प्रकार ऊँटको पीठ पिछले भागमें ऊंची होकर मध्यमें नीची होती है। पुनः नीची-ऊंची होकर जाती है । उसी प्रकार प्रदेशविन्यास भी आदिमें बहुत होकर पुनः स्तोक होता है। तथा इसके बादमें पुनः स्तोक बहुत होकर जाता है। इस कारण दूसरे समयमें दिये जानेवाले इस प्रदेश विन्यासको प्रकृतमें उष्ट्रकूटश्रेणि कहा गया है।
६९५. अब यहीं पर दिखनेवाले प्रदेशपुंजको श्रेणिप्ररूपणा करनेके लिए इस सूत्रको कहते हैं