Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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aarसे ढोए विदियसमए किट्टीटाणेसु दिज्जमानपदेस परूपणा
जहि जम्हि अपुव्वाणं चरिमकिट्टीदो पुव्वाणं जहण्णिया किट्टी भण्णदे तम्हि तम्हि पुण्यणिसित्तासंखेज्जविभागमेत्तदव्वेण परिहीणं काढूण पदेसग्गं णिसिचदि । तदण्णत्थ पुण अनंतंराणंतरावो अनंतभागहाणीए पदे णिसेगं कुणदि त्ति एसो एक्स्स सुत्तस्स भावत्यो । एवं च सेढिपरूवणं काढूण जोइज्जमाने के लिए उद्देसेसु असंखेज्जभागहीनो पदेसविण्णासो जादो, केत्तिएसु वा उद्दद्दे से सु असंखेज्जदिभागुत्तरो पदेसणिक्खेवो जादो त्ति इममत्यविसेसं परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* एदेण कमेण विदियसमए णिक्खिवमाणगस्स पदेसग्गस्स बारससु किट्टिट्ठाणेसु असंखेज्जदिभागहीणं । एकारससु किट्टिट्ठाणेसु असंखेजदिभागुत्तरं दिजमाणगस्स पदे सग्गस्स ।
९२. एवमणंतरपरू विदकमेण सेढिपरूवणं काढूण पुणो आदीदो प्पहूडि तम्हि जोइज्जमाणे विदियसमए णिचिचमाणगस्स पदेसग्गस्स बारससु किट्टिट्ठाणेसु असंखेज्जविभागहीणं समवट्टा होवि, बारसहं पि संगह किट्टीणमादिमसंघीसु अपुरुत्राणं चरिमकिट्टीवो पुण्यजहण्ण किट्टीए णिसिचचमाणपवेसगास्स परिष्फुडमेव तहाभावोवलंभादो । पुणो एक्कारससु किट्टिट्ठाणेसु असंखेज्जभागुत्तरं दिज्जमानपदेसग्गावद्वाणं होइ, पुव्वकिट्टीणं चरिमसंघीदो अपुव्वाणं जहण्णकिट्टीसु णियमा असंखेज्जदिभागुत्तरं पदेसणिवखेवं कुणमाणस्स तहाभावसिद्धीए बाहावलंभादो । पुणो एवाणि तेवीस संधिद्वाणाणि मोत्तूण सेसासेस किट्टिट्ठाणेसु अनंतभागहीणो चेव पदेसविण्णासो होइ, तत्थ पारंतर संभवो 'त्ति जाणावण फलमुत्तरसुत्तमो इण्णं
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विशेष अधिक करके प्रदेशपुंज निक्षिप्त करता है । तथा जिस-जिस स्थान पर अपूर्व कृष्टियों की अन्तिम कृष्टिसे पूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टि कही जाती है उस उस स्थान पर पूर्व में निक्षिप्त हुए असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको होन करके प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है । पुनः उससे अन्यत्र अनन्तर-अनन्तररूपसे अनन्त भागहानि द्वारा प्रदेश निषेकको करता है यह इस सूत्र का भावार्थ है । इस प्रकार श्रेणिप्ररूपणाको करके देखनेपर कितने ही स्थानोंमें असंख्यात भागहीन प्रदेश विन्यास हो गया है तथा कितने ही स्थानों में असंख्यातवां भाग अधिक प्रदेश निक्षेप हो गया है इस प्रकार इस अर्थ विशेषका कथन करते हुए आगे के सूत्र को कहते हैं
* इस क्रमसे दूसरे समय में दिये जानेवाले प्रदेशपुंजका बारह स्थानों में असंख्यातवें भागहीन अवस्थान होता है तथा दिये जानेवाले प्रदेशपुंजका ग्यारह स्थानोंमें असंख्यातवें भाग अधिक अवस्थान होता है ।
६ ९२. इस प्रकार अनन्तर कहे गये क्रमके अनुसार श्रेणिकी प्ररूपणा करके पुनः प्रारम्भसे लेकर उसके देखने पर दूसरे समय में दिये जानेवाले प्रदेशपुंजका बारह कृष्टिस्थानों में असंख्यातवें भागहीन अवस्थान होता है, क्योंकि बारह हो संग्रह कृष्टियोंकी प्रारम्भिक सन्धियों में अपूर्व अन्तिम कृष्टिसे पूर्व की जघन्य कृष्टिमें दिया जानेवाला प्रदेशपुंज स्पष्ट रूपसे उस प्रकार उपलब्ध होता है । तथा ग्यारह कृष्टि स्थानोंमें दिये जानेवाले प्रदेशपुंजका असंख्यातवें भाग अधिक अवस्थान होता है, क्योंकि पूर्व कृष्टियों को अन्तिम कृष्टिसे अपूर्व कृष्टियों को जघन्य कृष्टियों में नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक प्रदेशोंका निक्षेप करनेवालेके उस प्रकार से सिद्धि होने में बाधा नहीं पायी जाती है । पुन: इन तेईस सन्धि स्थानोंको छोड़कर शेष समस्त कृष्टिस्थानों में उत्तरोत्तर अनन्तवें भागहीन
प्रदेशविन्यास होता है, क्योंकि उन स्थानों में प्रकारान्तर सम्भव नहीं है इस प्रकार इस बातका ज्ञान कराने के फलस्वरूप आगेका सूत्र आया है
१. ता. आ. प्रत्योः पयारंतरासंभवो इति पाठः ।
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