Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसेढोए कोहकिट्टोपट्टमट्टिदिकरणपरूवणा ६ ११२. चदुण्हं संजलणाणं दुसमयूणदोआवलियमेत्तणवकबंधाणुभागं कोहसंजलणस्सावळियपविट्ठाणुभागं च मोत्तूण सेसं चदुहं संजलणाणमणुभागसंतकम्म सव्वमेव किट्टीसरूवेणेहि परिणदमिदि वृत्तं होइ। तदो किट्टीकरणद्धाए जाव चरिमसमओ ताव किट्टीगदसयलपदेसपिंडादो फद्दयगवसव्वपदेसपिंडमसंखेज्जगुणं होदूण वीसइ तदसंखेज्जविभागस्सेव तत्य किट्टीसहवेण परिणमणसणादो। पूणो किट्टीवेदगडाए पढमसमयम्हि णवकबंधुच्छिट्ठावलियवज्जं सव्वमेव चदुसंजलणपदेसग्गं किट्टीसहवेण परिणवमिदि एसो एक्स्स सुत्तस्स भावत्यो । किट्टीकरणद्धा जाव समप्पदि ताव दिस्समाणे पेक्खिदूण किट्टीओ सत्थाणे एयगोवुच्छायारेण अच्छंति, फद्दयगदं पि पदेसग्गमप्पणो सत्थाणं एयगोवुच्छं होदूण चिटुदि । पूणो किट्टीकरणद्धाए समत्ताए दिस्समाणावेक्खाए सव्वं पि पदेसगमेयगोवुच्छसरूवेण परिणमिय चिट्ठदि त्ति घेत्तव्वं ।
* तम्हि चेव पढमसमए कोहस्स पढमसंगहकिट्टीदो' पदेसग्गमोकड्डियण पढमद्विदि करेदि।
११३. तम्हि चेव किट्टीवेवगद्धापढमसमए किट्टीओ पवेसेंमाणो कोहसंजळणस्सेव ताव पढमसंगहकिट्ठीए पदेसग्गमोकड्डियूण सगवेदगकालादो आवलियब्भहियं कादूण पढमट्ठिदि.
६११२. चारों संज्वलनोंके दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्धस्वरूप अनुभागको और क्रोधसंज्वलनके उदयावलिप्रविष्ट अनुभागको छोड़कर शेष चारों संज्वलनोंका अनुभागसत्कर्म सम्पूर्ण हो इस समय कृष्टिस्वरूप परिणत हो गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसलिए कृष्टिकरण कालका जबतक अन्तिम समय प्राप्त होता है तब तक कृष्टिगत सम्पूर्ण प्रदेशपिण्डसे स्पर्धकस्वरूप सम्पूर्ण प्रदेशपिण्ड असंख्यातगुणा दिखाई देता है, क्योंकि उसके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रदेशपिण्डका हो वहाँपर कृष्टिरूपसे परिणमन देखा जाता है। पुनः कृष्टिवेदककालके प्रथम समयमें नवकबन्ध और उच्छिष्टावलिको छोड़कर चारों संज्वलनोंका सम्पूर्ण ही प्रदेशपुंज कृष्टिरूपसे परिणत हो गया है यह इस सूत्रका भावार्थ है। कृष्टिकरणकाल जबतक समाप्त होता है तबतक दिखनेवाले प्रदेशपुंजको अपेक्षा कृष्टयां स्वस्थानमें एक गोपुच्छाकार. रूपसे अवस्थित रहती हैं तथा स्पर्धकगत प्रदेशपुंज भी अपने स्वस्थानमें एक गोपुच्छारूप होकर अवस्थित रहता है। परन्तु कष्टकरणकालके समाप्त होनेपर दिखनेवाले प्रदेशपुंजको अपेक्षा समस्त ही प्रदेशपुंज एक गोपुच्छाकाररूपसे परिणमन करके अवस्थित रहता है यह यहां ग्रहण करना चाहिए।
विशेषार्थ-कृष्टिकरण कालके अन्तिम समय तक चारों संज्वलनोंका अनुभाग स्पर्धकरूपमें भी अवस्थित रहता है और जो अनुभाग कृष्टिरूप परिणम गया है वह भी अपने रूपमें ध्वस्थित रहता है। इसलिए यहाँपर पूरे अनुभागको दो गोपुच्छाएं बन जाती हैं। इन दोनों गोपुच्छाओंके स्वरूपका निर्देश पहले ही कर आये हैं। किन्तु जिस समय कृष्टिवेदन काल प्रारम्भ होता है उसी समय जितना भी स्पर्धकस्वरूप अनुभाग है वह सब एक गोपुच्छाकाररूपसे परिणत होकर दिखाई देने लगता है यह सूत्रका तात्पर्य है।
* उसो कृष्टिवेदक कालके प्रथम समयमें क्रोधको प्रथम संग्रह कृष्टिमेंसे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है।
११३. उसी कृष्टिवेदक कालके प्रथम समयमें कृष्टियोंको प्रवेशित करता हुआ सर्वप्रथम क्रोधसंज्वलनको ही प्रथम संग्रह कृष्टिमें से प्रदेशपुंजको अपकर्षित करके अपने वेदक कालसे एक १. ता. आ. प्रत्योः 'पढमसमयक्ट्ठिीदो' इति पाठः ।