Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ___ ४७. कोहस्स तदियसंगहकिट्टीए दुचरिमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा तत्थतणचरिमकिट्टीपमाणं पावदि तं सवपच्छिमकिट्टीसंतरमवहिं कादूणप्पाबहअमेदमणुगंतव्वमिदि सुत्तत्यसंगहो । एदे च भणिदसवगुणगारा बारसहं पि संगहकिट्टीणमंतरकिट्टीसु पयट्टमाणा सत्थाणगुणगारं णाम ।
६४८. एत्तो उवरि परत्थाणगुणगारसण्णिवाणं संगहकिट्टीअंतराणं जहाकमेण थोवबहुत्तावहारणमुत्तरो सुत्तपबंधो।
* तदो लोमस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं ।
६ ४९. लोभस्स पढमसंगहकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा विदियसंगहकिट्टीए पढमकिष्ट्रि पावदि सो गुणगारो लोभस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरं णाम । एसो गुणगारो सत्थाणगुणगाराणं चरिमगुणगारदो अणंतगुणो भवदि, परत्थाणगुणगारमाहप्पादो। इममेव च गुणगारयिसेसमस्सियूण एक्केतकस्स कसायस्स तिण्णि तिणि साहकिट्टीमो भणिवाओ, अण्णहा संगहकिट्टीणं पविभागाणुव. वत्तीदो। एत्थ हेद्विमकिट्टिमुवरिमकिट्टीदो सोहिय सुद्धसेसं रूवूणमेत्तमविभागपचिडछेदुत्तरकमवड्डीए विणा अक्कमेण वडिवत्तादो। किट्टीअंतरमिनि किण्ण घेप्पदे ? ण, तहा घेप्पमाणे पुग्विल्लचरिमसत्याणकिट्टीअंतरावो एदस्स संगहकिट्टीअंतरस्साणंमगुणहोणत्तप्पसंगादो। तं कधं ?
$ ४७. क्रोधको तीसरी संग्रह कृष्टिकी द्विचरम कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर वहाँकी अन्तिम कृष्टिके प्रमाणको प्राप्त होती है उस सब अन्तिम कृष्टि अन्तरको मर्यादा करके यह अल्पबहुत्व जान लेना चाहिए यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । कहे गये ये सब गुणकार बारह संग्रह कृष्टिसम्बन्धी अन्तर कृष्टियों में प्रवृत्त होते हुए स्वस्थान गुणकार कहलाते हैं । ___विशेषार्थ-गुणकारके स्वस्थान गुणकार और परस्थान गुणकार ये दो भेद पहले ही कह आये हैं। उनमेंसे यहां तक स्वस्थान गुणकारको अपेक्षा अन्तर कृष्टियोंके अन्तरोंको प्राप्त किया गया है । आशय यह है कि उत्तरोत्तर अगली-अगली कृष्टिके प्रमाणको प्राप्त करनेके लिए स्वस्थान गुणकारका प्रमाण उत्तरोत्तर अनन्तगुणा-अनन्तगुणा होता जाता है और इस प्रकार उत्तरोत्तर प्रत्येक कृष्टिमें अनुभागशक्तिरूप अविभागप्रतिच्छेद प्राप्त होते जाते हैं ।
$ ४८. इससे आगे परस्थान गुणकार संज्ञावाले संग्रह कृष्टि अन्तरोंके अल्पबहुत्वका क्रमसे अवधारण करने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है
* उससे लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है।
६४९. लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि जिस गुगकारसे गुणित होकर दूसरो संग्रह कृष्टियोंकी प्रथम कृष्टिको प्राप्त होती है उस गुणकारको लोभको प्रथम संग्रह कृष्टि अन्तर संज्ञा है। यह गुणकार स्वस्थान गुणकारोंके अन्तिम गुणकारसे अनन्तगुणा है। परस्थान गुणकारके माहात्म्यवश इसी गणकार विशेषका आलम्बन लेकर एक-एक कषायकी तीन-तीन संग्रह कृष्टियां कही गयो हैं. अन्यथा संग्रह कृष्टियोंका विशेष विभाग नहीं बन सकता। यहां पर अधस्तन कृष्टिको उपरिम कृष्टियोंमेंसे घटाकर जो शेष रहता है उससे एक कम अविभाग प्रतिच्छेदोंको उत्तर क्रमवृद्धि के विना अक्रमसे वृद्धि हुई है।
शंका-यहांपर कृष्टि अन्तर क्यों नहीं ग्रहण किया जाता?
समाधान-नहीं, क्योंकि वैसा ग्रहण करनेपर पूर्वोक्त अन्तिम स्वस्थान कृष्टि अन्तरसे इस संग्रह कृप्टि अन्तरके अनन्तगुणे हीन होनेका प्रसंग प्राप्त होता है।
१. आ. प्रती णीदाओ इति पाठः ।