Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
खवगढीए संगह किट्टी गुणगारपरूपणा
२१
* माणस्स पढमं संगह किट्टी अंतरमणंतगुणं । * विदिय संगह किट्टी अंतरमणंतगुणं । * तदियसंगह किट्टी अंतरमणंतगुणं । * माणस्स च कोहस्स च अंतरमणंतगुणं । * कोहस्स पढमसंगह किट्टी अंतरमणंतगुणं । * विदियसंगह किट्टी अंतरमणंतगुणं । ६०. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि ।
* तदिय संगह किट्टी अंतरमणंतगुणं ।
६१. एवं भणि कोहतदियसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा कोहस्स चेव अयादिवग्गणं पावदि सो गुणगारो कोधस्स तदियसंगह किट्टीअंतरमिदि णिद्दिट्ठ दव्वं । एवमेसो सत्थाप्पा हुआ विही भणिदो होदि । पुणो एवं सत्याणपदं मोत्तूण परत्थाणप्पा बहुअर्वारमसुत्ते भणिहिदित्ति एसो एक्को वक्खाणपयारो | अहवा 'तदियसंगह किट्टीअंतरमणंतगुणं' इदि भणिदे विदिय संगह किट्टीदो तदियसंगहकिट्टीए चरिम किट्टी समुप्पायणटुं पविट्ठस्स गुणगारस्स गहणं काय । एवं घेत्तूण पुणो एदम्हादो उवरि लोभस्स अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए पविस्समाणपरत्थाणगुणगारस्स णिद्देसमुवरिमसुत्ते भणिहिदि त्ति एसो विदियो वक्खाणपयारो । अधवा 'तदियसंगह किट्टी अंत रमणंतगुणं' इदि भणिदे कोधस्स चरिमादो किट्टीदो लोभस्स अपुब्वफद्दयादिवगणाए परत्थाणगुणगारो चेव गहिदो णाण्णो त्ति पटुप्पायणफलो उवरिमत्तावारो ति
* उससे मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । * उससे दूसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । * उससे तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है ।
* मान संज्वलन और क्रोध संज्वलनका अन्तर अनन्तगुणा है ।
* उससे क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है ।
* उससे दूसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है ।
६०. ये सूत्र सुगम हैं ।
* उससे तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है ।
$ ६१. ऐसा कहनेपर क्रोधकी तीसरी संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टि जिस गुणकार से गुणित होकर क्रोध ही अपूर्व स्पर्धककी आदि वर्गण को प्राप्त होती है वह गुणकार क्रोधकी तीसरी संग्रह कृष्टिका अन्तर है ऐसा निर्दिष्ट जानना चाहिए। इस प्रकार यह स्वस्थान अल्पबहुत्य विधि कही गयी है । अब उस स्त्रस्थान पदको छोड़कर परस्थान अल्पबहुत्वको अगले सूत्र में कहेंगे यह एक व्याख्यान प्रकार है । अथवा 'तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है' ऐसा कहनेपर दूसरी संग्रहकृष्टि से तीसरी संग्रहकृष्टिको अन्तिम कृष्टिको उत्पन्न करनेके लिए प्रविष्ट हुए गुणकारको ग्रहण करना चाहिए । ऐसा ग्रहण करके पुनः उससे आगे लोभके अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणा में प्रविष्ट होनेवाले परस्थान गुणकारका निर्देश अगले सूत्र में कहेंगे इस प्रकार यह दूसरा व्याख्यान प्रकार है ? अथवा 'तीसरी संग्रह कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है' ऐसा कहनेपर क्रोध की तीसरी कृष्टिसे लोभके अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाका परस्थान गुणकार ही ग्रहण किया है, अन्य नहीं । इस प्रकार इस बातका