Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसेढोए विदियसमए अपुवकिट्टीकरणपरूवणा अपुठवफद्दयादिवग्गणाओ णिक्खिविय पुणो अपुवफद्दयवग्गणाए तत्थ पुव्वावटिददव्वस्सासंखेज्जदि. भागमेत्तं चेव णिक्खिवमाणस्स तदुवलद्धीए बाहाणुवलंभादो। एत्थ दोहं पि दवाणमोवट्टणं ठविय पयदत्यविसये सिस्साणं पडिबोहो कायव्यो।
६७१. दिस्तमाणदव्वं पि कोधचरिमकिट्टीए बहुअं । अपुव्वफद्दयादिवग्गणाए अणंतगुणहोणमिदि दटुव्वं । तदो एत्थ दोगोवुच्छाओ जादाओ-किट्टीसु एया गोवुच्छा, पृथ्वापृथ्वफद्दएसु अण्णा गोवुच्छा त्ति । अण्णे पुण आइरिया किट्टीसु फद्दएसु च एया चेव गोवुच्छा होदि त्ति भणं त । तेसिमहिप्पाएण कोहचरिमकिट्टीए णिसित्तपदेसग्गादो अपुवफद्दयादिवग्गणाए णिसिंचमाणपदे. सग्गमसंखेज्जगुणहोणं होदि, अण्णहा किट्टोसु फद्दएसु च भिण्णगोवुच्छप्पसंगादो। एदम्मि परखे किट्टीकरणद्धाए चरिमसमयं मोत्तूण हेटिमासेससमएसु किट्टीसु दिस्समाणासेसदश्वमेयसमयपबद्धस्साणंतिमभागमेत्तं चेव जायदे। ण चेदमिच्छिज्जदे, उवसमसेढीए एदस्सत्थस्स बाहोवलंभादो। तम्हा पुव्वुत्तो चेव अत्थो घेतब्वो। एवं किट्टीकरणद्धाए पढमसमए किट्टीसु दिनमाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणं' कादूण संपहि विदियसमए कोरमाणकज्जभेदपदुप्पायणट्ठमुदरिमं सुत्तपबंधमाह
* विदियसमए अण्णाओ अपुवाओ किट्टीओ करेदि पढमसमये णिव्वत्तिदकिट्टीणमसंखेजदिभागमेत्ताओ।
समाधान-क्योंकि क्रोधको अन्तिम कृष्टिमें अपूर्व स्पर्धककी अनन्त आदि वर्गणाओंको निक्षिप्त कर पुनः अपुर्व स्पर्धककी वर्गणामें वहां पूर्वके अवस्थित हुए द्रव्यके असंख्यातवें भागमात्र ही द्रव्यका निक्षेप करनेवालेके उसकी उपलब्धि होने में बाधा नहीं पाई जाती। यहां पर दोनों ही द्रव्योंका अपवर्तन स्थापित करके प्रकृत अर्थके विषयमें शिष्योंको प्रतिबोधित करना चाहिए।
७१. दृश्यमान द्रव्य भी क्रोधकी अन्तिम कृष्टिमें बहुत है तथा उससे अपूर्व स्पर्धकको आदि वर्गमा अनन्तगुणा हीन है ऐसा जानना चाहिए । इसलिये यहां पर दो गोपुच्छाएं हो जाती हैं-कृथ्यिोंमें एक गोपुच्छा तथा पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंमें एक अन्य गोपुच्छा। किन्तु अन्य आचार्य कृष्टियों और स्पर्धकोंमें एक ही गोपुच्छा होती है ऐसा कहते हैं। उनके अभिप्रायसे क्रोधको अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त हए प्रदेशपूंजसे अपूर्व स्पर्धकको आदि वर्गणामें निक्षिप्त होनेवाला प्रदेशज असंख्यातगणा हीन होता है, अन्यथा कृष्टियों और गोपूच्छाओंमें भिन्न गोपूच्छाओंका प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु इस पक्षके स्वीकार करनेपर कृष्टिकरणके कालमें अन्तिम समयको छोड़कर अधस्तन ( पूर्वके ) समस्त समयसम्बन्धी कृष्टियों में दिखनेवाला समस्त द्रव्य एक समयप्रबद्धके अनन्तवें भागमात्र हो हो जाता है। परन्तु यह स्वोकार नहीं है, क्योंकि उपशम. श्रेणिमें इस अर्थमें बाधा पाई जातो है। इसलिए पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार कृष्टिकरणके कालके प्रथम समय में दोयमान प्रदेशपुंजको श्रेणिप्ररूपणा करके अब दूसरे समयमें किये जानेवाले कार्यभेदका कथन करने के लिए आगेके सूत्र प्रबन्धको कहते हैं
* दूसरे समयमें पूर्व समयमें निष्पन्न हुई कृष्टियों के असंख्यातवें भागप्रमाण अन्य अपूर्व कृष्टियोंको करता है।
१. आ. प्रती-सग्गसेढिपरूपणं इति पाठः ।