Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ५२. एत्थ चोदगो भणह-तवियसंगहकिट्रीअंतरमिदि वत्ते कदमस्स अंतरस्स गहणमिह कायठलं, कि ताव लोभस्स तदियसंगविट्रोए चरिमकिट्टीदो तस्सेवापव्वफद्दयादिवग्गणाए पविसमाणगणगारो घेप्पड, आहो लोभम्स तदियसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टीदो'मायाए पढमसंगहकिट्टीए आदिम्मि पविसमगणगणगारो ति? ण ताव पढमपक्खो, संगह कट्टीअंतराण. मप्पाबहए भण्णमाणे संगहकिट्टीफद्दयंतरगणगारस्स पवेसाणुववत्तीदो। अध केण वि संबंधेण तस्स वि पवेसो ण विरुद्धो त्ति वखाणिज्जदे तो वि एवम्हादो उवरि लोभस्स मायाए च अंतरमणंत गुणमिदि उवरि भण्णमाणसुत्तं ण जुज्जदे, किट्टीफद्दयंतरादो अणंतगणहीणस्स तम्स तत्तो अणंतरणत्तविरोहादो। ण विदिओ वि पक्खो घडतओ, लोभ-मायाणं चरिमपढमसंगहकिट्टीणमंतरस्त तदियसंगहकिट्टीअंतरं तेणेत्य णिद्दे सावलंबणे उवरिमसुत्तेण मृत्तकंठमेव सव्विसए पडिबद्धणेवस्स पुणरत्तदोसप्पसंगादो । तम्हा णिविसयत्तादो गाढवेयध्वमेदं सूत्तमिदि ? एत्थ परिहारो पच्चदे-'लोभस्स तदियसंगहकिट्टीअंतरमिदि वृत्ते लोभस्स विदियसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिवा लोभस्स चेव तदियसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टि पावेवि सो गुणगारो घेत्तव्यो। पुव्वुत्तविदियसंगहकिट्टीअंतरादो परिप्फुडमेवेदस्साणंतगुणत्तदंसणादो। को एत्थ गुणगारो ? तदियसंगहकिट्टीए पविट्ठासेससत्थाणगुणगाराणमण्णोण्णसंवग्गो । अणुत्तसिद्ध
५२. शंका-यहाँपर शंकाकार कहता है कि 'तदियसंग्रह किट्टीअंतरं' ऐसा कहनेपर यहाँ किस अन्तरका ग्रहण करना चाहिए, क्या लोभकी तीसरी संग्रह कृष्टिको अन्तिम कृष्टिसे उसीके अपर्व स्पर्धककी आदि वर्गणामें प्रविष्ट होनेवाला गुणकार ग्रहण करते हैं या लोभकी तीसरी संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टिसे माया संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिके आदिमें प्रविष्ट होनेवाला गुणकार ग्रहण करते हैं। उन दोनों पक्षोंमेंसे प्रथम पक्ष तो ठीक नहीं है, क्योंकि संग्रह कृष्टियोंके अन्तरोंके अल्पबहुत्वके कहनेपर संग्रहकृष्टि और स्पर्धक अन्तर सम्बन्धी गुणकारका प्रवेश नहीं बन सकता। किसी भी सम्बन्धवश गुणकारका प्रवेश भी विरोधको प्राप्त नहीं होता यदि ऐसा व्याख्यान किया जाता है तो भी इससे आगे 'लोभ और मायाका अन्तर अनन्तगुणा है' इसप्रकार आगे कहा जानेवाला सूत्र नहीं बन सकता है, क्योंकि कृष्टि और स्पर्धकसम्बन्धी अन्तरसे तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा हीन है, इसलिए तीसरी संग्रहकृष्टि और स्पर्धकके अन्तरसे उसके अनन्तगुणा होने में विरोध आता है। तथा दूसरा पक्ष भी घटित नहीं होता, क्योंकि लोभको अन्तिम संग्रहकृष्टि और मायाको प्रथम संग्रहकृष्टिका अन्तर तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर है, इस कारण यहाँपर उसके निर्देशका अवलम्बन करनेपर उपरिम सूत्र स्पष्टरूपसे उस विषयसे सम्बन्ध रखता है, इसलिए इस कथनमें पुनरुक्त दोषका प्रसंग आता है, इसलिए विषयशून्य होनेसे इस सूत्रका आरम्भ नहीं करना चाहिए?
समाधान यहां उक्त शंकाका परिहार करते हैं-'लोभस्स तदियसंगहकिट्टोअंतरं' ऐसा कहनेपर लोभको दूसरी संग्रहकृष्टिको अन्तिम कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर छोभकी ही तीसरी संग्रहकृष्टिकी अन्तिम कृष्टिको प्राप्त करती है वह गुणकार ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पूर्वोक्त दूसरी संग्रह कृष्टिके अन्तरसे स्पष्टरूपसे यह अन्तर अनन्तगुणा देखा जाता है।
शंका-यहाँपर गुणकार क्या है ?
समाधान-तीसरी संग्रह कृष्टि में प्रविष्ट हुए समस्त स्वस्थान गुणकारोंके परस्पर गुणा करनेपर जो लब्ध आवे वह यहांपर गुणकार है।
१. आ. प्रती संगहकिट्टीए मायाए इति पाठः ।