Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसे ढोए संगह किट्टी गुणागारपरूपणा
१७
लोभस्स पढमसंग किट्टीए चरिमकिट्टि तस्सेव विदियसंगहकिट्टीए पढमकिट्टीदो सोहिय सुद्ध से सं वर्ण लोहस्स पढमसंगहकिट्टी अंतरं णाम होदि ।
५०. संपहि विदियसंगह किट्टीए पढमकिट्टि तिस्से चैव विदियकिट्टीदो सोहिदे सुद्ध सेसरूवूणरासी पुव्विल्लसंगह किट्टी अंतरणिमित्तसुद्ध सेसरासीदो अनंतगुणो होइ, तेण एत्तियमेत्तरासी अविभागपलिच्छेदुत्तरकमेण विणा अक्कमेण वडिदो त्ति पढम-विदियकिट्टीणमेदमंतरं जावं । एवं
संते पृथ्विल्लसंगह किट्टीअंतरादो एवं किट्टोअंतरमणंतगुणं जादं । ण च एवं सुत्ते भणिदं, एत्तो अतगुणको हत दियसंग हकिट्टी चरिम किट्टोअंतरादो वि लोभस्स पढमसंगहकिट्टी अंतरमणंत गुण मिदि सुतेणेदेण णिद्दित्तादो | एवं सेससंगहकिट्टी अंतराणं पि किट्टीअंतरादो अनंत गुण होणत्तत्पसंगादो दरसेयव्वो । तेण जाणामो किट्टीअंतरमिदि भणिदे किट्टीगुणगारो चेव सव्वत्थ घेत्तव्वो । ण पुण मिट्टी मिट्टीदो सोहिय समवलद्धसेसरासि त्ति ।
* बिदिय संगह किट्टी अंतरमणंतगुणं ।
8५१. विदियसंगह किट्टीए चरिमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिवा तदियसंगह किट्टीए पढमकिट्टि पावदि सो गुणगारो विदियसंगह किट्टोअंतरं णाम । एदं पढमसंगह किट्टीअंतरावो अनंतगुणं । को गुणगारो ! तप्पा ओग्गाणं तरूवमेत्तो ।
* तदियसंगह किट्टी अंतरमणंतगुणं ।
शंका- वह कैसे ?
समाधान - लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिको अन्तिम कृष्टिको उसीकी द्वितीय संग्रहकृष्टिकी प्रथम कृष्टिमें से घटा देनेपर जो शेष रहता है एक कम वह लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिका अन्तर होता है । ५०. अब दूसरी संग्रह कृष्टिकी प्रथम कृष्टिको उसीकी दूसरी कृष्टिमें से घटा देनेपर जो राशि शेष रहती है, एक कम वह राशि पूर्वोक्त संग्रह कृष्टिके अन्तर निमित्तरूप शुद्ध शेष सशिसे अनन्तगुणी होती है, इसलिए इतने प्रमाणरूप राशि अविभागप्रतिच्छेदोंकी उत्तर क्रमवृद्धिके बिना अक्रमसे बढ़ी है, इसलिए प्रथम और दूसरी कृष्टियोंका यह अन्तर हो गया है और ऐसा होनेपर पूर्वके संग्रह कृष्टि अन्तरसे यह कृष्टि अन्तर अनन्तगुणा हो गया | परन्तु ऐसा सूत्र में कहा नहीं है, क्योंकि इससे क्रोधको अनन्तगुणी तीसरी संग्रह कृष्टिसम्बन्धी अन्तिम कृष्टि अन्तरसे भी लोकी प्रथम कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है ऐसा इस सूत्रद्वारा निर्दिष्ट किया गया है। इसी प्रकार शेष संग्रह कृष्टियोंके अन्तर के भो कृष्टि अन्तरसे अनन्तगुणे हीन होनेका प्रसंग प्राप्त होता है ऐसा यहाँ दिखलाना चाहिए। इससे हम जानते हैं कि कृष्टि अन्तर ऐसा कहनेपर कृष्टिगुणकार ही सर्वत्र ग्रहण करना चाहिए, परन्तु अधस्तन कृष्टिको उपरिम कृष्टिमेंसे घटाकर जो शेष रहे वह नहीं ।
* उससे दूसरी संग्रह कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है ।
५१. दूसरी संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर तीसरी संग्रह कृष्टिकी प्रथम कृष्टिको प्राप्त होती है वह गुणकार द्वितीय संग्रह कृष्टिका अन्तर है । यह प्रथम संग्रह कृष्टि अन्तरसे अनन्तगुणा है ।
शंका- गुणकार क्या है ?
समाधान - तत्प्रायोग्य अनन्त संख्या गुणकार है । * उससे तीसरी संग्रह कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है ।
१. ता. प्रतौ पढमसंगहकिट्टीए इति पाठः ।
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