Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 15
________________ जयधवलासहित कषायप्राभूत भंगविचयानुगम-इसमें नाना जीवोंकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके अस्तित्व और नास्तित्वको लेकर भंगोंका विचार किया गया है। भागाभागानुगम-इसमें यह बतलाया है कि सब जीवोंके कितने भाग जीव मोहनीयकर्मकी सचावाले हैं और कितने भाग जीव असत्ता वाले हैं। परिमाण-इसमें मोहनीयकर्मकी सचावाले और असत्तावालोंका परिमाण बतलाया गया है । क्षेत्र-इसमें मोहनीयकर्मकी सचावाले और असचावाले जीवोका क्षेत्र बतलाया गया है कि वे कितने क्षेत्रमें रहते हैं। स्पर्शन-इसमें उनका त्रिकाल विषयक क्षेत्र बतलाया गया है । काल-इसमें नानाजीवोंकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके कालका कथन किया है। अर्थात् यह बतलाया है कि मोहनीयकर्मकी सत्तावाले और असत्तावाले जीव कब तक रहते हैं। चूंकि संसार में दोनों ही प्रकारके • जीव सर्वदा पाये जाते हैं अतः उनका काल सर्वदा बतलाया है। पहला कालका वर्णन एक जीव की अपेक्षासे है और यह नाना जीवोंकी अपेक्षासे है। अन्तर-यह अन्तर भी नानाजीवोंकी अपेक्षासे है । चूंकि मोहनीयकर्मकी सत्ता और असत्तावाले जीव सदा पाये जाते हैं अत: सामान्यसे उनमें अन्तर नहीं है। भाव-इसमें यह बतलाया है कि मोहनीयकर्मकी सत्तावालोंके पांच भावोंमें से कौन-कौन भाव होते हैं और असचावालोंके कौन भाव होता है। सचावालेके पारिणामिकके सिवा चार भाव होते हैं और असचावालेके केवल एक क्षायिक भाव ही होता है। अल्पबहुत्व-इसमें मोहनीयकर्मकी सचा और असचावालोंमें कमती बढ़तीपन बतलाया गया है कि कौन थोड़े हैं कौन बहुत हैं ? यहां यह ध्यान रखना चाहिये कि उक्त सभी अनुयोगद्वारों में गुणस्थान और मार्गणाओंकी अपेक्षा वर्णन किया गया है । तथा वह मोहनीय कर्मकी सत्ता और असत्ता को लेकर ही किया गया है। न तो मोहनीयके सिवा दूसरे किसी कर्मका इसमें वर्णन है और न सचा-असचाके सिवा किसी दूसरी अवस्था का ही वर्णन है। इस वर्णनके साथ मूल प्रकृति विभक्तिका वर्णन समाप्त हो जाता है जो ५९ पेनों में हैं। उत्तरप्रकृतिविभक्ति उत्तर प्रकृतिविभक्तिके दो भेद हैं-एकैक उचर प्रकृतिविभक्ति और प्रकृतिस्थान उत्तर प्रकृति विभक्ति । एकैक उत्तर प्रकृतिविभक्तिमें मोहनीय कर्मकी अठाईस प्रकृतियोंका पृथक् पृथक् निरूपण किया गया है। और प्रकृतिस्थान उत्तर प्रकृतिविभक्तिमें मोहनीय कर्मके अट्ठाईस प्रकृतिक, सचाईसप्रकृतिक, छब्बीसप्रकृतिक आदि १५ प्रकृतिक स्थानोंका कथन किया गया है। . एकैक उचर प्रकृतिकविभक्तिका कथन चौबीस अनुयोगद्वारोंकी अपेक्षासे किया गया है। इनमें १७ अनुयोगद्वार तो मूल प्रकृतिविभक्तिवाले ही हैं । शेष हैं-सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुस्कृष्टविभक्ति, जघन्यविभक्ति, अजघन्यविभक्ति और सन्निकर्ष । मोहनीयकी समस्त प्रकृतियोंको सर्वविभक्ति और उससे कमको नोसर्वविभक्ति कहते हैं । गुणस्थान और मार्गणाओमें कहां मोहनीयकी सब प्रकृतियोंका सत्व है और कहां उनसे कम प्रकृतियोंका सत्त्व है इसका निरूपण इन दोनों अनुयोगद्वारोंमें किया गया है। सबसे उत्कृष्ट प्रकृतियोंको उस्कृष्टविभक्ति और उनसे कम को अनुस्कृष्ट विभक्ति कहते हैं। मोटे तौर पर सर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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