Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

Previous | Next

Page 13
________________ जयधवलासहित कषायप्राभूत ३ 'मनुष्य' शब्दसे किसका प्रहण ? पृ० २११ पर चूर्णि सूत्रमें कहा है कि नियमसे क्षपक मनुष्य और मनुष्यिणी ही एक प्रकृतिकस्थानका स्वामी होता है । श्री वीरसेन स्वामीने इसका अर्थ करते हुए कहा है कि 'मनुष्य' शब्दसे पुरुषवेद और नपुंसकवेदसे विशिष्ट मनुष्योंका ग्रहण करना चाहिये। यदि ऐसा अर्थ नहीं किया जायेगा तो नपुंसकवेद वाले मनुष्योंमें एक विभक्तिका अभाव हो जायेगा। इससे स्पष्ट है कि आगम ग्रन्थोंमें मनुष्य शब्दका उक्त अर्थ ही लिया गया है। यही वजह है जो गोम्मट्टसार जीवकाण्डमें गति मार्गणामें नपुंसकवेदी मनुष्योंकी संख्या अलगसे नहीं बताई है और न मनुष्यके भेदोंमें अलगसे उसका ग्रहण किया है। इससे भाववेदकी विवक्षा भी स्पष्ट हो जाती है। ४ कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि मरता है या नहीं ? पृ० २१५ पर चूर्णिसूत्रका विवेचन करते हुए यह शङ्का उठाई गई है कि कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टिके भी बाईस प्रकृतिकस्थान पाया जाता है । और वह मरकर चारों गतियोंमें उत्पन्न हो सकता है। अतः 'मनुष्य और मनुष्यनी ही बाईस प्रकृतिक स्थानके स्वामी होते हैं' यह वचन घटित नहीं होता। इसका समाधान करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि यतिवृषभाचार्यके दो उपदेश इस विषयमें हैं। अर्थात उनके मतसे कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मरता भी है और नहीं भी मरता। यहां पर जो चूर्णिसूत्रमें मनुष्य और मनुष्यनीको ही बाईस प्रकृतिकस्थानका स्वामी बतलाया है सो दूसरे उपदेशके अनुसार बतलाया है। किन्तु उच्चारणाचार्यके उपदेशानुसार कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिका मरण नहीं होता ऐसा नियम नहीं है । अतः उन्होंने चारों गतियोंमें बाईस प्रकृतिकस्थानका सत्त्व स्वीकार किया है। ५. उपशमसम्यग्दृष्टिके अमन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना होती है या नहीं ? पृ० ४१७ पर यह शंका की गई है कि 'जो उपशम सम्यग्दृष्टि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करता है उसके अल्पतर विभक्ति स्थान पाया जाता है । अतः उपशमसम्यग्दृष्टिके अल्पतर विभक्तिस्थानका काल भी बतलाना चाहिये। इसका यह उत्तर दिया गया कि उपशम सम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती । इस पर पुनः यह प्रश्न किया गया कि 'इसमें क्या प्रमाण है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती' | तो उत्तर दिया गया कि 'चूंकि उच्चारणाचार्यने उपशमसम्यग्दृष्टिके एक अवस्थित पद ही बतलाया है, अल्पतर पद नहीं बतलाया। इसीसे सिद्ध है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती। इसपर फिर शंका की गई कि 'उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना मानने वाले आचार्यके वचनके साथ उक्त कथनका विरोध आता है अतः इसे अप्रमाण क्यों न मान लिया जाय' ? उत्तर दिया गया कि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाका कथन करने वाला वचन सूत्र वचन नहीं है, किन्तु व्याख्यान वचन है, सूत्रसे व्याख्यान काटा जा सकता है परन्तु व्याख्यानसे व्याख्यान नहीं काटा जा सकता । अतः उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना न माननेवाला मत अप्रमाण नहीं है । फिर भी यहाँ दोनो ही मतोंको मान्य करना चाहिये, क्योंकि ऐसा कोई साधन नहीं है जिसके आधार पर एक मतको प्रमाण और दूसरेको अप्रमाण ठहराया जा सके। इस शंका समाधानके बाद वीरसेन स्वामीने लिखा है कि 'यहां पर यही पक्ष प्रधान रूपसे लेना चाहिये कि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होती है क्योंकि परंपरासे यही उपदेश चला आता है। ऐसा ज्ञात होता है कि आचार्य यतिवृषभका यही मत है क्योंकि उन्होंने जो २४ प्रकृतिक विभक्तिस्थानका उस्कृष्टकाल साधिक एक सौ बत्तीस सागर बतलाया है वह उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना माने विना नहीं बनता । अतः इस विषयमें भी आचार्य यतिवृषभ और उच्चारणाचार्यमें मतभेद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 520