Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 42
________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन कर्मण: सामान्यादिभेदप्रभेदान् गाथाद्वयेनाऽऽह कम्मत्तणेण इक्कं दव्यं भावो त्ति होइ दुविहं खु । पुग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्ती भावकम्मं तु ॥६॥ पूर्वोक्तं कर्म सामान्यकर्मत्वेन एकं भवति । तु पुनः तत् कर्म द्विविधं भवति-द्रव्यकर्म-भावकर्मभेदात् । तत्र द्रव्यकर्म पुद्गलपिण्डो भवति । तस्य पुद्गलपिण्डस्य या शक्तिः रागद्वेषाद्युत्पादिका रागहेषपरिणामो वा भावकर्म भवति ॥६॥ उक्त त्रिकोण-रचनामें स्पष्ट रूपसे दिखाई देगा कि प्रत्येक समयमें जिस परिमाणमें काल्पनिक रूपसे ६३०० परमाणुका पिण्ड जैसे एक समयमें आ रहा है उसी प्रकार विभिन्न समयोंमें बँधे हुए समय-प्रबद्धोंके जो-जो निषेक प्रतिसमय उदयमें आकर निर्जीर्ण हो रहे हैं उन सबका परिमाण भी एक समय-प्रबद्ध प्रमाण अर्थात् ६३०० ही है । यह हुई एक समयमें बँधने और उदयमें आनेवाले द्रव्यके परिमाणकी बात। ___अब इसी त्रिकोण-रचनामें देखिए कि जहाँ सीधी पंक्ति में प्रतिसमय बँधनेवाले समय-प्रबद्ध की निषेक-रचना दृष्टिगोचर हो रही है, वहाँ ऊपरसे नीचेकी पंक्ति में उदयागत निषेोंके समय-प्रबद्ध प्रमाण परमाणु भी निर्जीर्ण होते हुए दिखाई दे रहे हैं । अब हम किसी भी विवक्षित समयमें काल्पनिक संदष्टिके अनुसार ४८ वें समयमें सत्त्वका परिमाण यदि जानता चाहते हैं तो वहाँ उसके नीचेसे खींची गयी पंक्ति नम्बर२ पर दृष्टिपात कीजिए। इसके नीचेका सर्वद्रव्य समुच्चय रूपसे सदा ही सत्तामें मिलेगा। इस द्रब्यका प्रमाण कितना है, इसीका उत्तर गाथाके उत्तरार्धमें दिया गया है कि वह कुछ कम डेढ़ गुणहानि आयामसे गुणित समय-प्रबद्ध प्रमाण है। जैसा कि हम पहले बतला आये हैं एक गुणहानिका आयाम = समय है उसके आधे ४ होते हैं, दोनोंका जोड १२ होता है। उससे समय-प्रबद्ध का प्रमाण जो ६३०० परमाणु है उसमें गुणा कर देनेपर ६३००४१२ =७५६०० प्रमाण संख्या होती है और उक्त त्रिकोणरचनामें विविध समय-प्रबद्धोंके जो परमाणु सत्तामें पड़े हुए हैं उनका जोड़ ७१३०४ होता है । इसलिए सत्ताके द्रव्यको कुछ कम डेढ़ गुणहानि-आयामसे गुणित समय-प्रबद्ध प्रमाण कहा है। इस प्रकार उक्त दोनों गाथाओंमें जो यह कहा गया है कि जीवके प्रतिसमय एक समय-प्रबद्ध बँधता है, एक उदयमें आता है और कुछ कम डेढ़ गुणहानि आयामसे गुणित समयप्रबद्ध-प्रमाण द्रव्य सत्तामें रहता है वह सर्वथा युक्ति-युक्त ही कहा गया है। __यहाँ इतनी विशेषता और समझनी चाहिए कि जब यह संसारी जीव सम्यग्दर्शनादि विशेष गुणोंको प्राप्त करता है, तब उसके पूर्वोक्त क्रमको उल्लंघन कर गुणश्रेणी रचना आदिके द्वारा सम्यक्त्वोत्पत्ति आदि ग्यारह स्थानों में प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणी रूपसे अनेक समय-प्रबद्धोंकी भी निर्जरा करता है जिसका निर्देश गाथामें 'पओगदो णेगसमयबद्धं वा' इस वाक्य के द्वारा किया गया है। अब दो गाथाओंके द्वारा कर्मके भेद-प्रभेदोका निरूपण करते हैं अभेद या सामान्यकी अपेक्षा कर्म एक प्रकारका है। भेदकी अपेक्षा द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें ज्ञानावरणादि रूप पुद्गलपरमाणुओंके पिण्डको द्रव्यकर्म कहते १.श्रा इवकं । २. पिण्डगतशक्तिः कार्ये कारणोपचारात, शक्तिजनिताज्ञानादिर्वा भावकर्म (गो० क. टी.)। ३. त-कम्मो त्ति । ४. गो. क०६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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